Book Title: Panchsangraha Part 08
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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उदीरणाकरण प्ररूपणा अधिकार : गाथा २६
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गाथार्थ - क्षीणमोहगुणस्थान में जिनका क्षय होता है, ऐसी चौदह प्रकृतियों की मिथ्यात्व के क्रम से क्षीणमोहगुणस्थान में तथा अन्तर्मुहूर्त स्थिति वालो शेष प्रकृतियों को सयोगिकेवलीगुणस्थान के अन्त समय में जघन्य स्थिति - उदीरणा होती है ।
विशेषार्थ - क्षीणमोहगुणस्थान में जिनका सत्ता में से नाश होता है, ऐसी ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क और अन्तरायपंचक रूप चौदह प्रकृतियों की क्षीणमोहगुणस्थान में ही मिथ्यात्व की रीति से यानि जैसे मिथ्याथ्व की उदययोग्य समयाधिक आवलिका प्रमाण स्थिति शेष रहे तब समय प्रमाण स्थिति की जघन्य स्थिति - उदीरणा होती है, उसी प्रकार ज्ञानावरणपंचक आदि चौदह प्रकृतियों की समयाधिक आवलिका प्रणाम स्थिति सत्ता में शेष रहने पर जघन्य स्थिति - उदीरणा होती है । तथा
मनुष्यगति, पंचेन्द्रिजाति, प्रथम संहनन, औदारिकसप्तक, संस्थानषट्क, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्त अप्रशस्त विहायोगति, स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, सुभग, सुस्वर दुःस्वर, आदेय, यश:कीर्ति, तीर्थकर नाम और उच्चगोत्र रूप बत्तीस और निर्माण आदि ध्रुवोदया तेतीस कुल पैंसठ प्रकृतियों की अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति की सयोरिवली गुणस्थान के चरम समय में जघन्य स्थिति उदीरणा होती है ।
सयोगिकेवली के चरम समय में सत्तागत सभी प्रकृतियों की स्थिति अन्तर्मुहर्त प्रमाण ही सत्ता में होती है, जिसमें उदयावालिका से ऊपर की अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति ही जघन्य उदीरणायोग्य रहती है । इसीलिए उक्त पैंसठ प्रकृतियों की अन्तर्मुहर्त प्रमाण ही जघन्य स्थिति - उदीरणा कही है । तथा
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मिथ्यात्व और चौदह प्रकृतियों में मात्र समय प्रमोग जघन्य स्थिति का ही साम्य है, अन्य नहीं । क्योंकि मिथ्यात्व का क्षय तो चौथे से सातवें गुणस्थान तक में ही हो जाता है ।
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