Book Title: Panchsangraha Part 08
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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उदीरणाकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४०
शब्दार्थ-- अणुभागुदीरणाए- अनुभाग-उदीरणा में, घाइसण्णा-गाति, संज्ञा, य-और, ठाणसन्ना--स्थानसंज्ञा, य-और' सुया-शुभाशुभत्व, विवाग--विपाक, हेउ-हेतु, जोत्थ-जो यहाँ, विसेसो--विशेष, तयं-- उसको, वोच्छं-कहँ गा।
गाथार्थ-उदय के प्रसंग में जैसा घातिसंज्ञा, स्थानसंज्ञा, शुभाशुभत्व, विपाक और हेतु के लिए कहा गया है, वैसा ही अनुभाग-उदीरणा में भी समझना चाहिए। लेकिन यहाँ जो विशेष है, उसको में कहंगा।
विशेषार्थ-अनुभाग उदीरणा के सम्बन्ध में छह विचारणीय विषय हैं यथा-१ संज्ञा-प्ररूपणा, २ शुभाशुभ-प्ररूपणा, ३ विपाकप्ररूपणा, ४ हेतु-प्ररूपणा, ५ साद्यादि-प्ररूपणा और ६ स्वामित्वप्ररूपणा।
इनमें से संज्ञा, शुभाशुभत्व, विपाक और हेतु के बारे में मात्र सूचना करते हैं कि संज्ञा दो प्रकार की है-१ घातिसंज्ञा, २ स्थानसंज्ञा। इनमें घातिसंज्ञा तीन प्रकार की है-१ सर्वघातिसंज्ञा, २ देशघातिसंज्ञा और ३ अघातिसंज्ञा । स्थानसंज्ञा के चार प्रकार हैं-१ एकस्थानक, २ द्विस्थानक, ३ त्रिस्थानक और ४ चतुःस्थानक। शुभत्व और अशुभत्व के भेद से शुभाशुभत्व के दो प्रकार हैं । यथा-मतिज्ञानावरणादिक अशुभ हैं और सातावेदनीय आदि शुभ हैं । विपाक के चार प्रकार हैं-१ पुद्गलविपाक, २ क्षेत्रविपाक, ३ भवविपाक और ४ जोवविपाक । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव के भेद से हेतु के पांच प्रकार हैं।
इनमें घातिसंज्ञा, स्थानसंज्ञा, शुभाशुभत्व, विपाक और हेतु जैसे बंध और उदय के आश्रय से पूर्व में कहे गये हैं, उसी प्रकार यहाँअनुभाग-उदी रणा में- भी जानना चाहिए। अर्थात् वहाँ जिन प्रकृतियों को बंध, उदय की अपेक्षा सर्वघाति आदि कहा गया हो, उसी प्रकार यहाँ उदीरणा में भी समझना चाहिए। लेकिन उनके सम्बन्ध में जो कुछ भी विशेष है, उसका यहाँ निर्देश किया जा रहा है ।
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