Book Title: Panchsangraha Part 08
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ८
वाला देव अथवा नारक हो, तो अपनी अपनी आयु के चरम समय में वर्तमान उस देव अथवा नारक के यथायोग्य देवगति, नरकगति और वैक्रिय - अंगोपांग की जघन्य स्थिति की उदीरणा होती है तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय में से आये हुए परन्तु विग्रहगति में अपनी-अपनी आयु के तीसरे समय में वर्तमान देव अथवा नारक के अनुक्रम से देवानुपूर्वी और नरकानुपूर्वी की जघन्य स्थिति उदीरणा होती है । तथा
वेयतिगं दिट्ठिदुगं संजलणाणं च पढमट्ठिईए । समयाहिगालियाए सेसाए उवसमे वि दुसु ||३६||
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शब्दार्थ - वेयतिगं - वेदत्रिक की, दिठिदुगं- दृष्टिद्विक की, संजलणाणं -संज्वलन कषायों की च और, पढमट्ठिईए प्रथम स्थिति में, समयाहिगालियाए समयाधिक आवलिका के, सेसाए - शेष रहने पर, उवसमे विउपशम श्रेणि में भी. दुसु-- दोनों में ।
गाथार्थ- - प्रथम स्थिति में समयाधिक आवलिका प्रमाण स्थिति शेष रहने पर वेदत्रिक, दृष्टिद्विक, और संज्वलन कषायों की जघन्य स्थिति उदीरणा होती है। सम्यक्त्वमोहनीय और संज्वलन लोभ की दोनों श्रेणि में और शेष प्रकृतियों को क्षपक श्रेणि में ही जघन्य स्थिति उदीरणा होती है ।
विशेषार्थ - जब अन्तरकरण (अन्तर डालने की क्रिया) प्रारम्भ करे तब नीचे की छोटी स्थिति प्रथम स्थिति और ऊपर की बड़ी स्थिति द्वितीय स्थिति कहलाती है । प्रथम स्थिति की समयाधिक आवलिका प्रमाण स्थिति शेष रहे, तब वेदत्रिक स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेद, दृष्टिद्विकसम्यक्त्व और मिथ्यात्व मोहनीय और संज्वलनकषाय - क्रोध, मान, माया और लोभ इन नौ प्रकृतियों की उदयावलिका से ऊपर की समय मात्र स्थिति ही उदीरणा योग्य होने से उस समय प्रमाण स्थिति की उदीरणा जघन्य स्थिति उदीरणा कहलाती है । मात्र सम्यक्त्वमोहनीय
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