Book Title: Panchsangraha Part 08
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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उदीरणोकरणा-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३० है। इसलिये आवलिका अधिक अन्तमुहर्तन्यून बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति-उदीरणा क्यों नहीं कही ? इसके उत्तर में बताया गया है कि दो आवलिकाओं को अन्तमुहूर्त में ही गभित कर दिया गया है, जिससे बड़ा अन्तर्मुहूर्त ग्रहण करने का संकेत किया है।
प्रश्न- अनुदयसंक्रमोत्कृष्टा स्थिति वाली उपर्युक्त प्रकृतियों की अन्तर्मुहूर्तन्यून उत्कृष्ट स्थिति उदीरणायोग्य होती है, ऐसा जो ऊपर कहा है, वह युक्तियुक्त है। परन्तु आतपनाम तो बंधोत्कृष्टा प्रकृति है। इसलिये ज्ञानावरणादि की तरह उसकी बंधावलिका और उदयावलिका इस तरह आवलिकाद्विकन्यून उत्कृष्ट स्थिति उदीरणायोग्य प्राप्त होती है, तो फिर अन्तर्मुहूर्त न्यून क्यों कहा है ? ___ उत्तर-इसका कारण यह है कि ज्ञानावरणादि उदयबंधोत्कृष्टा प्रकृतियां हैं और आतपनाम अनुदय धोत्कृष्टा प्रकृति है । अनुदयबंधोत्कृष्टा प्रकृतियों की अनुदयसंक्रमोत्कृष्टा प्रकृतियों की तरह अन्तर्मुहूर्तन्यून ही उत्कृष्ट स्थिति उदीर णायोग्य होती है।
अब आतपनाम की उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणा का विचार करते हैं- उत्कृष्ट संक्लेश में वर्तमान ईशान तक के देव ही एकेन्द्रियप्रायोग्य आतप, स्थावर और एकेन्द्रियजाति नाम की उत्कृष्ट स्थिति बांधते हैं, अन्य कोई नहीं बांधते हैं। वे देव आतपनाम की उत्कृष्ट स्थिति बांधकर अन्तमुहूर्त पर्यन्त देवभव में ही मध्यम परिणाम से रहकर काल करके खर बादर पृथ्वीकाय में उत्पन्न होते हैं। वहाँ उत्पन्न होकर शरीरपर्याप्त से पर्याप्ति होने के बाद आतपनाम के उदय में वर्तमान उसकी उदीरणा करते हैं, इसीलिये यह कहा है कि आतपनाम की अन्तमुहूर्तन्यून उत्कृष्ट स्थिति उदीरणायोग्य होती है ।
आतप का ग्रहण उपलक्षण है, अतएव अन्य स्थावर, एकेन्द्रियजाति, नरकद्विक, तिर्यचद्विक, औदारिकसप्तक, सेवार्तसंहनन, निद्रापंचक रूप उन्नीस अनुदयबंधोत्कृष्टा प्रकृतियों की अन्तर्मुहूर्तन्यून
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