Book Title: Panchsangraha Part 08
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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उदीरणाकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३३
विशेषार्थ - एकेन्द्रियों के ही उदीरणायोग्य प्रकृतियां जैसे किएकेन्द्रिय जाति, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण नाम । इन प्रकृतियों की जघन्य स्थिति की सत्ता वाला एकेन्द्रिय उन उन प्रकृतियों की प्रतिपक्षा प्रकृतियों को बांधकर बंधावलिका के चरम समय में उन-उन प्रकृतियों का उदय वाला जीव जघन्य स्थिति की उदीरणा करता है ।
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तात्पर्य यह है कि सर्व जघन्य - अल्पातिअल्प स्थिति की सत्ता वाला एकेन्द्रिय द्वीन्द्रियादि चारों जातियों को क्रमपूर्वक बांधे और क्रमपूर्वक उन चारों जातिनामकर्म को बांधने के पश्चात् एकेन्द्रियजाति को बांधना प्रारम्भ करे तो उसकी बंधावलिका के चरम समय में वह एकेन्द्रिय अपनी जाति की जघन्य स्थिति की उदीरणा करता है ।
उपयुक्त स्वरूप वाले एकेन्द्रिय को अपनी जाति की जघन्य स्थिति का उदीरक कहने का पहला कारण यह है कि वह एकेन्द्रियजाति की कम से कम स्थिति की सत्ता वाला है और दूसरा यह है कि जितने काल अपनी प्रतिपक्षी द्वीन्द्रियादि जातिनामकर्म को बांधता है, उतने काल प्रमाण एकेन्द्रियजाति की स्थिति को भोगने के द्वारा न्यून करता है, जिससे सत्ता में अल्प स्थिति रहती है और सत्ता में अति अल्प स्थिति रहने से उदीरणा भी अति अल्प स्थिति की ही होती है, जिससे उपर्युक्त स्वरूप वाले एकेन्द्रिय जीव को अपनी जाति की जघन्य स्थिति का उदीरक कहा है । इसी कारण अति जघन्य स्थिति की सत्ता और प्रतिपक्षी प्रकृति का बंध, इन दोनों को ग्रहण किया है तथा चारों जातियों को बांधने के पश्चात् एकेन्द्रियजाति की बंधावलिका के चरम समय में जघन्य स्थिति की उदीरणा होती है, कहने का कारण यह है कि बंधावलिका पूर्ण होने के अनन्तरवर्ती समय में बंधावलिका के प्रथम समय में बांधी गई लता का भी उदय होने से उदी
१ एकेन्द्रियजाति की प्रतिपक्षी द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जाति हैं तथा स्थावर, सूक्ष्म और साधारण नाम की प्रतिपक्षी अनुक्रम से बस, बादर और प्रत्येक नाम हैं ।
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