Book Title: Panchsangraha Part 08
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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उदीरणाकरण- प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३२
स्थिति रही कि जिसमें करण लग सकता है, उसको कम करके सयोगि के प्रथम समय में पल्योपम के असंख्यातवें भाग रखकर उसकी जो उदीरणा की जाती है, उसे उत्कृष्ट उदीरणा कहते हैं, यह समझना चाहिये ।
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चारों आयु का अपना अपना उत्कृष्ट स्थितिबंध होने के बाद जब उसका उदय हो तब उदय के प्रथम समय में उस उस आयु की उत्कृष्ट स्थिति- उदीरणा होती है और उसी को उत्कृष्ट उदीरणा कहते हैं । उस-उस आयु का उदय वाला जीव उसका स्वामी है ।
इस प्रकार अद्धाच्छेद और उत्कृष्ट उदीरणास्वामित्व की प्ररूपणा जानना चाहिए | अब जघन्य स्थिति - उदीरणास्वामित्व का कथन करते हैं ।
जघन्य स्थिति उदीरणास्वामित्व
भयकुच्छआयवज्जोयसव्वघाईकसाय
निद्दाणं । अतसो ||३२||
अतिहीणसंतबंधो जहण्णउद्दीरंगो
शब्दार्थ - भयकुच्छ भय, जुगुप्सा, आयवुज्जोय - आतप, उद्योत, सव्वघाईकसाय सर्वघाति कषायों, निद्दाणं निद्राओं की, अतिही संतबंधोअतिहीन सत्ता और बंध वाला, जहण्णउद्दीरगो - जघन्य स्थिति का उदीरक, अतसो
- अत्रस-स्थावर ।
गाथार्थ - अतिहीन सत्ता और बंध वाला स्थावर भय, जुगुप्सा, आतप, उद्योत, सर्वघाति कषायों और निद्रा की जघन्य स्थिति का उदीरक है ।
विशेषार्थ - अति अल्प स्थिति की सत्ता वाला और सत्ता की अपेक्षा कुछ अधिक या समान ही नवीन कर्म का बंध करने वाला स्थावर जीव भय, जुगुप्सा, आतप, उद्योत, आदि की अनन्तानुबंधि आदि बारह संबंधाति कषायों और निद्रापंचक कुल इक्कीस प्रकृतियों की बंधावलिका बीतने के बाद जघन्य स्थिति उदीरणा करता है ।
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