Book Title: Panchsangraha Part 08
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ८
उत्कृष्ट स्थिति उदीरणायोग्य है। इनमें स्थावर और एकेन्द्रियजाति की भावना आतप के समान ही समझना चाहिए । तथा
नरकद्विक के सम्बन्ध में विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है-पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच अथवा मनुष्य नरकद्विक की उत्कृष्ट स्थिति बांधता है, उत्कृष्ट स्थिति का बंध करने के बाद अन्तमहर्त के अनन्तर नीचे की पांचवीं, छठी और सातवीं में से किसी भी नरकपृथ्वी में उत्पन्न हो तो उसे जिस समय नरकायु का उदय हो, उसी समय अन्तर्मुहूर्तन्यून बीस कोडाकोडी सागर प्रमाण नरकगति की उत्कृष्ट स्थिति उदीरणायोग्य होती है। मात्र नरकानुपूर्वी की अन्तमुहूर्तन्यून उत्कृष्ट स्थिति की उदीरणा विग्रहगति में ही होती है । तथा
कोई एक नारक औदारिक सप्तक, तिर्यंचद्विक और अन्तिम संहनन इन प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति बांधकर उसके बाद मध्यम परिणाम वाला हो, वहीं अन्तमुहूर्त प्रमाण रहकर तिर्यचति में उत्पन्न हो तो तिर्यंचगति में उत्पन्न हुआ वह अन्तमुहूर्तन्यून उत्कृष्ट स्थिति की उदीरणा करता है। तथा
निद्रापंचक की भी अनुदय में उत्कृष्ट संक्लेश से उत्कृष्ट स्थिति बांधकर अन्तमुहूर्त बीतने के बाद निद्रा के उदय में वर्तमान अन्तमुहर्तन्यून उत्कृष्टस्थिति की उदोरणा करता है। निद्रा का जब उदय हो तब उत्कृष्ट संक्लिष्ट परिणाम नहीं होते हैं, परन्तु मध्यम परिणाम होते हैं, जिससे उसका उदय न हो तभी तीव्र संक्लिष्ट परिणाम से उसकी उत्कृष्ट स्थिति बंधती है और उत्कृष्ट स्थिति बांधने के बाद अन्तमुहूर्त जाने के अनन्तर ही उदय में आती है और उदय हो तभी
१ इन तीन नरकप्रायोग्य-नरकगति लायक कर्म बांधते नरकद्विक की
उत्कृष्ट स्थिति का बंध होता है, अन्य नरकप्रायोग्य बांधने पर मध्यम स्थिति बंधती है, इसलिए नीचे की तीन नरक पृथ्वियां ली हैं ।
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