Book Title: Panchsangraha Part 08
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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८. उदीरणाकरण-प्ररूपणा अधिकार
संक्रम, उद्वर्तना तथा अपवर्तना करण का विवेचन करने के अनन्तर अब क्रमप्राप्त उदीरणाकरण की व्याख्या प्रारंभ करते हैं। प्रकृत्युदोरणा
उदीरणाकरण में विचारणीय विषय इस प्रकार हैं-लक्षण, भेद, साद्यादि निरूपण एवं स्वामित्व । उनमें से पहले लक्षण और भेद का प्रतिपादन करते हैं। लक्षण और भेद
जं करणेणोकढिय दिज्जइ उदए उदीरणा एसा । पगतिट्ठितिमाइ चउहा मूलुत्तरभेयओ दुविहा ॥१॥
शब्दार्थ-जं ---जो, करणेगोरुढियकरण द्वारा उत्कीर्ग करके --खींच कर. दिज्जइ----दिये जाते हैं, उदए-उदय में, उदीरगा–उदीरणा, एसायह, पगतिट्ठितिमाइ-प्रकृति, स्थिति आदि, च उहा -चार प्रकार की, मूलुत्तरभेयओ-मूल और उत्तर प्रकृतियों के भेद से, दुविहा---दो प्रकार की ।
गाथार्थ-करण द्वारा उत्कीर्ण करके-खींचकर जो कर्मदलिक उदय में दिये जाते हैं, यह उदीरणा है। वह प्रकृति, स्थिति आदि के भेद से चार प्रकार की है तथा मूल और उत्तर प्रकृति के भेद से उनके दो-दो प्रकार हैं। विशेषार्थ-गाथा के पूर्वार्ध द्वारा उदीरणा के लक्षण और उत्तरार्ध द्वारा भेदों का निरूपण किया है । उदीरणा का लक्षण इस प्रकार है
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