Book Title: Panchsangraha Part 08
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह :
विशेषार्थ - हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा रूप हास्यषट्क के उदीरक अपूर्वकरणगुणस्थान पर्यन्त वर्तमान सभी जीव जानना चाहिये ।
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जिस प्रकार से विस्तारपूर्वक प्रकृति उदीरणा का स्वरूप कहा है उसी प्रकार सामान्यतः उदय का स्वरूप भी समझना चाहिये । इसका कारण यह है कि उदय और उदीरणा प्राय: साथ ही प्रवर्तित होती है । किन्तु इतना विशेष है कि इकतालीस प्रकृतियों में ही उदीरणा से उदय अधिककाल पर्यन्त होता है । इसी बात को यहाँ प्रायः शब्द से स्पष्ट किया है । क्योंकि उनसे शेष रही प्रकृतियों में तो उदय और उदीरणा युगपद्भावी है। तथापगइट्ठाणविगप्पा जे सामी होंति उदयमासज्ज । तेच्चिय उदीरणाए नायव्वा घातिकम्माण ||२३|| शब्दार्थ - पगइट्ठाणविगप्पा – प्रकृतिस्थान और विकल्प, जे जो, सामी- स्वामी, होंति हैं, उदयमासज्ज - उदयाश्रित, तेच्चिय—वे ही, उदीरणाए - उदीरणा में, नायव्वा — जानना चाहिये, घातिकम्माणं- घाति कर्मों के
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गाथार्थ - घातिकर्मों के उदयाश्रित जो प्रकृतिस्थान और उनके विकल्प तथा स्वामी कहे हैं, वे ही उदीरणा में भी जानना चाहिये ।
विशेषार्थ - 'घातिकम्माणं' अर्थात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय रूप घातिकर्मों के उदय की अपेक्षा जो-जो प्रकृतिस्थान पूर्व में कहे गये हैं और उन उन प्रकृतिस्थानों के जो-जो भेद बताये हैं एवं उन-उन भेदों के मिथ्यादृष्टि आदि जो स्वामी कहे हैं वे सभी अन्नानतिरिक्त उदीरणा के विषय में भी समझना चाहिये ।
१ इकतालीस प्रकृतियों के नाम एवं उनका कितने काल उदय अधिक होता है यह पांचवे अधिकार की उदय विधि के प्रसंग में गाथा ८-१००
द्वारा स्पष्ट किया है ।
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