Book Title: Panchsangraha Part 08
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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उदीरणाकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २४ क्योंकि इकतालीस प्रकृतियों के सिवाय शेष प्रकृतियों का जहाँ तक उदय होता है तब तक उदोरणा भी होती है, ऐसा शास्त्रीय सिद्धान्त है।
एक साथ जितनी प्रकृतियों का उदय हो, वह प्रकृतिस्थान कहलाता है। जैसे कि मिथ्यादृष्टि को मोहनीयकर्म की एक साथ सात, आठ, नौ या दस प्रकृतियां उदय में होती हैं। उनमें से आठप्रकृतिक स्थान का उदय अनेक प्रकार से होता है, इसी प्रकार नौप्रकृतिक का भी अनेक रीति से होता है। इसी तरह उदीरणा में भी प्रकृतिस्थान, उनके विकल्प आदि के सम्बन्ध में भी जानना चाहिये। तथा
मोत्त अजोगिठाणं सेसा नामस्स उदयवण्णेया। गोयस्स य सेसाणं उदीरणा जा पमत्तोत्ति ॥२४॥
शब्दार्थ-मोत्त-- छोड़कर, अजोगिठाणं --अयोगि के प्रकृतिस्थान को, सेसा-- शेष, नामस्स-नामकर्म के, उदयवण्णेया –उदय के समान जानना चाहिए, गोयस्स-गोत्रकर्म के, य-और, सेसाणं-शेष की, उदीरणा --- उदीरणा, जा-यावत्, तक, पमत्तोत्ति -प्रमत्तसंयतगुणस्थान ।
गाथार्थ-अयोगि के प्रकृतिस्थानों को छोड़कर नाम और गोत्र कर्म के शेष प्रकृतिस्थान उदय के समान जानना तथा शेष (वेदनीय और आयु) को उदीरणा प्रमत्तगुणस्थान पर्यन्त होती है। विशेषार्थ- अयोगिगुणस्थान सम्बन्धी आठ प्रकृति के उदय रूप और नौ प्रकृति के उदय रूप इन दो प्रकृतिस्थानों को छोड़कर शेष बीस, इक्कीस आदि प्रकृतिक नामकर्म के प्रकृतिस्थान उदय के समान ही उदीरणाधिकार में जानना चाहिये । अर्थात् जैसे वे स्थान उदय में हैं, वैसे ही उदीरणा में भी हैं, ऐसा समझना चाहिये । . अयोगिकेवलीगुणस्थान सम्बन्धी आठ और नौ प्रकृतिक उदय को छोड़ने का कारण यह है कि उदीरणा योग के निमित्त से होने से और
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