Book Title: Panchsangraha Part 08
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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उदीरणाकरण प्ररूपणा अधिकार : गाथा २५
लक्षण और भेद
२६.
पत्तोदया इयरा सह वेयइ ठिइउदीरणा एसा । बेआवलिया हीणा जावुक्कोसत्ति पाउग्गा ||२५||
शब्दार्थ - पत्तोदयाए- उदयप्राप्त,
इयरा—इतर उदय अप्राप्त,
सह- साथ, वेयइ–वेदन की जाती है, ठिइउदीरणा-स्थिति- उदीरणा, एसा - वह, बेआवलिया दो आवलिका, होणा न्यून, जावुक्कोसत्तिउत्कृष्टस्थिति पर्यन्त, पाउग्गा प्रायोग्य ।
गाथार्थ - उदयप्राप्त स्थिति के साथ जो इतर - उदय अप्राप्त स्थितिवेदन की जाती है, वह स्थिति उदीरणा है और वह दो आवलिकान्यून उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त उदीरणाप्रायोग्य है ।
विशेषार्थ - गाथा में स्थिति - उदीरणा का लक्षण एवं उसके भेदों का निरूपण किया है । उनमें से स्थिति - उदीरणा का लक्षण इस प्रकार है
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उदयप्राप्त स्थिति के साथ 'इयरा' उदय - अप्राप्त, उदयावलिका से ऊपर रही हुई स्थिति को वीर्य विशेष के द्वारा आकर्षित कर, खींचकर जो वेदन किया जाता है, उसे स्थिति उदीरणा कहते हैं । यद्यपि स्थिति के समयों को खींचकर उसका प्रक्षेप या अनुभव नहीं होता है। क्योंकि काल खींचा नहीं जाता है, परन्तु उदयावलिका के बीतने के बाद उसउस समय में भोगने के लिये नियत हुए दलिकों को वीर्यविशेष से खींचकर उदयावलिका में जो समय- स्थितिस्थान हैं उनके साथ भोगनेयोग्य किये जाते हैं । तात्पर्य यह कि उदयावलिका के बाद किसी भी समय भोगने योग्य दलिकों को उदीरणाकरण द्वारा उदयावलिका के साथ भोगनेयोग्य किये जाते हैं ।
यद्यपि उदीरणा दलिकों की ही होती है, परन्तु उस उस स्थितिस्थान में रहे हुए कर्म दलिकों को उदीरित किया जाता है, इसीलिये इस प्रकार की उदीरणा को स्थिति उदीरणा कहते हैं ।
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