Book Title: Panchsangraha Part 08
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
पंचसंग्रह : ८
अयोगिकेवली भगवान योग का अभाव होने से किसी भी कर्म की उदीरणा नहीं करते हैं । इसलिये आठ प्रकृति रूप और नौ प्रकृति रूप प्रकृतिस्थान अयोगिकेवली को उदय में होते हैं परन्तु उदीरणा में नहीं होते हैं । शेष बीस, इक्कीस आदि प्रकृतिक स्थान उदय की तरह उदीरणा में भी सामान्यतः सप्रभेद जानना चाहिये ।। _ गोत्र के सम्बन्ध में जहाँ-जहाँ उच्चगोत्र या नीचगोत्र का उदय नहीं होता, उसको छोड़कर शेष उदय उदीरणासहित जानना चाहिये । अर्थात् जब-जब और जहाँ-जहाँ उच्चगोत्र या नीचगोत्र का उदय हो वहाँ-वहाँ और तब-तब उदीरणा भी साथ में होती है। मात्र चौदहवें गुणस्थान में योग का अभाव होने से उच्चगोत्र का उदय होने पर भी उदीरणाहीन होता है, यह समझना चाहिये। ___साता-असातावेदनीय और मनुष्यायु की प्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त उदीरणा जानना चाहिये, आगे अप्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों में नहीं । क्योंकि वे गुणस्थान अति विशुद्ध परिणाम वाले हैं। वेदनीय और आयु की उदीरणा घोलमान परिणाम में होती है और वैसे परिणाम छठे प्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त ही होते हैं।
इति शब्द अधिक अर्थ का सूचक होने से शेष तीन आयु की और मनुष्यायु की भी अन्तिम आवलिका में उदीरणा नहीं होती है, केवल उदय ही होता है ।
इस प्रकार से प्रकृति-उदीरणा की वक्तव्यता जानना चाहिये। अब क्रमप्राप्त स्थिति-उदीरणा का वर्णन प्रारम्भ करते हैं। स्थिति-उदीरणा
स्थिति-उदीरणा की वक्तव्यता के पांच अर्थाधिकार हैं-१. लक्षण, २. भेद, ३. साद्यादि प्ररूपणा, ४. अद्धाछेद और ५. स्वामित्व । इनमें से पहले लक्षण और भेद इन दो विषयों का प्रतिपादन करते हैं।
१ सुगम बोध के लिये उक्त कथन का दर्शक प्रारूप परिशिष्ट में देखिये।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org