Book Title: Panchsangraha Part 08
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ८
शब्दार्थ-मोत्तणछोड़कर, खीणरागं–क्षीणराग को, इंदियपज्जत्तगा -इन्द्रियपर्याप्ति से पर्याप्त, उदीरंति-उदीरणा करते हैं, निद्दापयलानिद्रा और प्रचला की, सायासायाई—साता असाता वेदनीय की, जे----जो, पमत्तत्ति-प्रमत्तगुणस्थान तक के।
गाथार्थ-क्षीणराग को छोड़कर इन्द्रियपर्याप्ति से पर्याप्त सभी निद्रा और प्रचला की उदीरणा करते हैं। साताअसाता वेदनीय के प्रमत्तगुणस्थान तक के जीव उदीरक हैं।
विशेषार्थ-खीणरागं' अर्थात् क्षीणमोह नामक बारहवां गुणस्थान, अतः उस गुणस्थान की चरम आवलिका शेष न रहे, तब तक इन्द्रियपर्याप्ति से पर्याप्त सभी जीव जब उनका उदय हो तब निद्रा और प्रचला की उदीरणा करते हैं। इस सम्बन्ध में मतान्तर निम्न प्रकार हैं
१ कर्मस्तव नामक प्राचीन दूसरे कर्मग्रन्थ के कर्ता आदि कितनेक आचार्य क्षपकौणि में और क्षीणमोहगुणस्थान में भी निद्राद्विक का उदय मानते हैं । अत: जब उदय हो तब अवश्य उसकी उदीरणा होती है, इस सिद्धान्त के अनुसार उनके मतानुसार इन्द्रियपर्याप्ति से पर्याप्त होने के काल से लेकर क्षीणमोहगुणस्थान की चरमावलिका शेष न रहे, तब तक निद्राद्विक की उदीरणा होती है । अर्थात् चरमावलिका से पूर्व तक निद्राद्विक की उदीरणा होती है।
२ सत्कर्म नामक ग्रन्थ के कर्ता आदि कितने ही आचार्य 'निहादुगस्स उदओ खीणखवगे परिच्चज्ज' क्षपकोणि और क्षीणमोहगुणस्थान में वर्तमान जीवों को छोड़कर निद्राद्विक का उदय मानते हैं । अतः उनके मतानुसार क्षपकणि में वर्तमान जीवों को छोड़कर शेष उपशांतमोहगुणस्थान तक में वर्तमान समस्त जीवों के निद्राद्विक का उदय और उदीरणा होती है।
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