Book Title: Panchsangraha Part 08
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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उदीरणाकरण- प्ररूपणा अधिकार : गाथा १८, १६
उच्चं चिय जइ अमरा केई मणुया व नीयमेवण्णे । चउगइया दुभगाई तित्थयरो केवली तित्थं ॥ १८ ॥ शब्दार्थ - - उच्चं उच्चगोत्र की, चिय — ही, जइ यति, अमरा - देव, केई - कोई-कोई, मणुया - मनुष्य, व- - अथवा, नोयमेवण्णे-अन्य दूसरे नीच गोत्र की, चउगइया - चारों गति के, दुभगाई - दुर्भगादि की, तित्थयरो केवली - तीर्थंकर केवली, तित्थं- - तीर्थंकरनाम की ।
गाथार्थ -- यति और देव उच्चगोत्र की ही उदीरणा करते हैं । कोई-कोई मनुष्य भी उच्चगोत्र के उदीरक हैं और अन्य जीव नीच गोत्र के ही उदीरक हैं। दुर्भग आदि की चारों गति के जीव उदीरणा करते हैं । तीर्थंकर केवली तीर्थंकर नाम के उदीरक हैं ।
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विशेषार्थ - सम्यक् संयमानुष्ठान में प्रयत्नवन्त समस्त मुनिराज और समस्त भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देव उच्चगोत्र की ही उदीरणा करते हैं तथा जिनका उच्चकुल में जन्म हुआ है ऐसे कोई-कोई मनुष्य भी उच्चगोत्र के उदीरक हैं । उनको नीचगोत्र का उदय नहीं होने से वे नीचगोत्र की उदीरणा नहीं करते हैं तथा उक्त से व्यतिरिक्त नारक, तिर्यंच और नीच कुलोत्पन्न मनुष्य नीचगोत्र की ही उदीरणा करते हैं । तथा
'दुभगाई' अर्थात् दुर्भग, अनादेय और अयशः कीर्ति नामकर्म की इन तीन प्रकृतियों की चारों गति के जीव उदीरणा करते हैं । मात्र जिनको सुभग आदि का उदय हो वे उनकी उदीरणा करते हैं तथा शेष सभी जीव दुभंग आदि के उदय में रहते दुभंग आदि की उदीरणा करते हैं । तथा
जिन्होंने तीर्थंकर नाम का बंध किया है उनको जब केवलज्ञान उत्पन्न हो तब वे तीर्थंकरनाम की उदीरणा करते हैं। क्योंकि उस सिवाय शेष काल में तीर्थंकरनाम का उदय नहीं होता है । तथाइं दियपज्जत्तगा उदीरंति । सायासायाई
मोत्तण खीणरागं निद्दापयला
जे पमत्तत्ति ॥ १६॥
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