Book Title: Panchsangraha Part 08
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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उदीरणाकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३
मिथ्यात्व, घातिकर्म की चौदह और नामकर्म की तेईस, इस तरह कुल अड़तालीस ध्र वोदया प्रकृतियों को छोड़कर शेष एक सौ दस अध्र वोदया प्रकृतियों की उदीरणा अध्र वोदया होने से सादि और अध्र व इस तरह दो प्रकार की है।
ध्र वोदया प्रकृतियों में से मिथ्यात्व की उदीरणा सादि, अनादि, ध्रुव और अध्र व इस तरह चार प्रकार की है। वह इस प्रकारजिसने सम्यक्त्व प्राप्त किया है, उसके मिथ्यात्व का उदय नहीं होने से मिथ्यात्व की उदीरणा नहीं होती है, इसलिये सांत है । सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्व में जाने वाले, प्राप्त करने वाले के पुनः उदीरणा होती है अतः सादि है, अभी तक जिसने सम्यक्त्व प्राप्त नहीं किया उसकी अपेक्षा अनादि तथा किसी भी काल में सम्यक्त्व प्राप्त नहीं करने वाला होने से अभव्य की अपेक्षा ध्र व- अनन्त और भव्य की अपेक्षा अध्र व है।
ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, अंतरायपंचक, अस्थिर, स्थिर, शुभ, अशुभ, तैजससप्तक, अगुरुलघु, वर्णादि बीस और निर्माण कुल मिलाकर इन सैंतालीस प्रकृतियों की उदीरणा अनादि, ध्र व और अध्र व इस तरह तीन प्रकार की है। जो इस प्रकार-ये संतालीस प्रकृतियां ध्र वोदया होने से अनादि काल से सभी जीवों को इनकी उदीरणा प्रवर्तमान है । इसलिये अनादि है और अभव्यों के अनन्त काल पर्यन्त प्रवर्तमान रहने वाली होने से ध्रुव अनन्त है तथा जो भव्य जीव ऊपर के गुणस्थानों में जाकर उपर्युक्त प्रकृतियों की उदीरणा का विच्छेद करेंगे उनकी अपेक्षा अध्र व-सांत है। इनमें से ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क और अंतरायपंचक की उदीरणा बारहवें गुणस्थान तक होती है और नामकर्म की तेतीस प्रकृतियों की उदीरणा तेरहवें गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त होती है, उसके बाद उनका विच्छेद हो जाता है।
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