Book Title: Panchsangraha Part 08
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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उदीरणाकरण- प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८, ६
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शब्दार्थ - आहारी -- आहारपर्याप्ति से पर्याप्त, - देव और सुरनारगनारक, सण्णी- संज्ञी, इयरे — इतर - मनुष्य, तिर्यंच, अनिलो- वायुकाय, उ- और, पज्जत्तो- पर्याप्त, लद्धीए- - लब्धियुक्त, बायरो - बादर, दीरगोउदीरक, उ- - और, वेडवियतणुस्स - वैक्रिय शरीरनाम के । तदुवंगसवि-उसी के अंगोपांगनाम के ( वैक्रिय अंगोपांग के ), तेच्चिय-वही, पवणं-वायुकाय को, मोत्तण- छोड़कर, केइ — कोई, नर तिरिया - मनुष्य, तिर्यंव, आहारसत्तगस्स आहारकसप्तक की, वि-भी, कुणइ -- करता है, पत्तो प्रमत्तसंयत, विउब्वन्तो--- विकुर्वणा करता हुआ । गाथार्थ - आहारपर्याप्ति से पर्याप्त देव और नारक, वैक्रियलब्धि युक्त संज्ञो मनुष्य, तियंच और बादर पर्याप्त वायुकाय के जीव वैक्रिय शरीरनाम के उदोरक हैं ।
वायुकाय को छोड़कर वैक्रिय अंगोपांग के भी वही जीव उदीरक हैं । मात्र कोई मनुष्य, तिर्यंच उदीरक हैं । विकुर्वणा करता हुआ प्रमत्तसंयत आहारकसप्तक का उदीरक है ।
विशेषार्थ - आहारपर्याप्ति से पर्याप्त देव और नारक तथा जिनको वैक्रिय शरीर करने की शक्ति-लब्धि उत्पन्न हुई है और उसकी विकुर्वणा कर रहे हैं ऐसे संज्ञी मनुष्य और तिर्यंच एवं वैक्रिय लब्धिसम्पन्न दुर्भगनाम के उदय वाले बादर पर्याप्त वायुकाय के जीव वैक्रियशरीरनाम की तथा उपलक्षण से वैक्रियबन्धनचतुष्टय, वैक्रियसंघातननाम को उदीरणा के स्वामी हैं । तथा
वैक्रिय - अंगोपांगनाम की उदीरणा के स्वामी भी ( वायुकाय के जीवों के अंगोपांग नहीं होने से, उनको छोड़कर शेष ) उपर्युक्त वही देवादि जीव जो वैक्रिय शरीरनाम के उदीरक हैं, वे सभी हैं । मात्र मनुष्य, तियंचों में कतिपय ही वैक्रिय शरीर एवं वैक्रिय अंगोपांगनाम के उदीरक हैं। क्योंकि कुछ एक तिर्यंच और मनुष्य ही वैक्रिय लब्धियुक्त होते हैं। जिनको उसकी लब्धि होती है, वे हो उसकी विकुर्वणा कर सकते हैं तथा आहारकसप्तक की विकुर्वणा करते हुए लब्धियुक्त
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