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पश्वसंग्रह
जो दिव्यभाव-युक्त अणिमादि आठ गुणोंसे नित्य क्रीडा करते रहते हैं और जिनका प्रकाशमान दिव्य शरीर है, वे देव कहे गये हैं ॥६३॥ सिद्धगतिका स्वरूप
'जाइ-जरा-मरण-भया संजोय-विओय-दुक्ख-सण्णाओ।
रोगादिया य जिस्से ण होति सा होइ सिद्धिगई ॥६४॥ जहाँ पर जन्म, जरा, मरण, भय, संयोग, वियोग, दुःख, संज्ञा और रोगादिक नहीं होते हैं, वह सिद्धगति कहलाती है ॥६४।।
इस प्रकार गतिमार्गणाका वर्णन समाप्त हुआ। अब इन्द्रियमार्गणाका वर्णन करते हुए पहले इन्द्रियका स्वरूप कहते हैं
अहमिंदा जह + देवा अविसेसं अहमहं ति मण्णंता।
ईसंति एकमेकं इंदा इव इंदियं जाणे ॥६॥ ___ जिस प्रकार अहमिन्द्रदेव विना किसी विशेषताके 'मैं इन्द्र हूँ, मैं इन्द्र हूँ' इस प्रकार मानते हुए ऐश्वर्यका स्वतन्त्ररूपसे अनुभव करते हैं उसी प्रकार इन्द्रियोंको जानना चाहिए । अर्थात् प्रत्येक इन्द्रिय अपने-अपने विषयके सेवन करनेमें स्वतन्त्र है ॥६॥ इन्द्रियोंके आकार--
"जवणालिया-मसूरी-चंदद्ध-अइमुत्तफुल्लतुल्लाई।
इंदियसंठाणाई फासं पुण णेगसंठाणं ॥६६॥ श्रोत्रेन्द्रियका आकार यव-नालीके समान, चक्षुरिन्द्रियका मसूरके समान, रसनेन्द्रियका अर्ध-चन्द्रके समान और घ्राणेन्द्रियका अतिमुक्तक पुष्प अर्थात् कदम्बके फूलके समान है। किन्तु स्पर्शनेन्द्रिय अनेक आकारवाली है ॥६६॥
'एइंदियस्स फुसणी एक चिय होइ सेसजीवाणं ।
एयाहिया य तत्तो जिब्भाधाणक्खिसोत्ताई ॥६७॥ एकेन्द्रिय जीवके एक स्पर्शन-इन्द्रिय ही होती है। शेष जीवोंके क्रमसे जिह्वा, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये एक-एक इन्द्रिय अधिक होती हैं ॥६७।। इन्द्रियोंके विषय
पुढे सुणेइ सदं अपुट्ठपुण वि पस्सदे रूवं ।
फासं रसं च गंधं बद्धं पुट्ट वियाणेइ ॥६॥ श्रोत्रेन्द्रिय स्पृष्ट शब्दको सुनती है। चक्षुरिन्द्रिय अस्पृष्ट रूपको देखती है । स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और घ्राणेन्द्रिय क्रमशः बद्ध और स्पृष्ट, स्पर्श, रस और गन्धको जानती हैं ॥६८।।
सं. पंचसं० 1. १, १, १४१ । 2.१, १४२ । 3. १,१४३ । 4. १, १४४ । 5.१, १४५ । १. ध० भा० १ पृ. २०४ गा० १३२ । गो० जी० १५१ । २. ध० भा० १ पृ० १३७ गा० ८५। गो० जी० १६३। ३. मूला० गा० १०११ । ध० भा० १ पृ० २३६ गा० १३४ ।
ध० भा० १ पृ० २५८ गा० १४२ । गो. जी. १६६। ५. सर्वा० १, १६ । सब -जेस्से, द -जिस्सिं । + प्रतिषु 'जिह' पाठः ।
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