Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
हिन्दी समय व्याख्या गाथा-३ अन्वयार्थ—( पंचानां समवादः ) पाँच अस्तिकाय का समभावपूर्वक निरूपण ( वा ) अथवा { समवायः ) उनका समवाय ( पंचास्तिकायका सम्यक् बोध अथवा समृह ) ( समयः । वह समय है ( इति ) ऐसा ( जिनोत्तमैः प्रज्ञप्तम् ) जिनवरोंने कहा है। ( सः च एव लोकः भवति ) वही लोक है ( पाँच अस्तिकाय के समूह जितना ही लोक है ) ( तत: ) उससे आगे ( अमित: अलोक: ) असीम अलोक ( खम् ) आकाशस्वरूप है।
टीका—यहाँ ( इस गाथा में ) शब्दरूपसे, ज्ञानरूपसे और अर्थरूपसे ( शब्दसमय, ज्ञानसमय और अर्थसमय )-ऐसे तीन प्रकारसे "समय" शब्दका अर्थ कहा है तथा लोकअलोकरूप विभाग कहा है।
__वहाँ, ( १ ) 'सम' अर्थात् मध्यस्थ यानी जो रागद्वेषसे विकृत नहीं हुआ, 'वाद' अर्थात् वर्ण ( अक्षर ), पद ( शब्द ) और वाक्यके समूहवाला पाठ । पाँच अस्तिकाय का 'समवाद' अर्थात् मध्यस्थ ( रागद्वेषसे विकृत नहीं हुआ ) पाठ । मौखिक या शास्त्रारूढ़ निरूपण ) वह शब्दसमय है अर्थात शब्दागम वह शब्दसमय है। (२) मिथ्यादर्शनके उदय का नाश हाने पर, उस पंचास्तिकायका ही सम्यक् अवाय अर्थात् सम्यक् ज्ञान व ज्ञानसमय है, अर्थात् ज्ञानागम वह ज्ञानसमय है। ( ३ ) क्रथनके निमित्तसे सात हुए उस पंचास्तिकायका ही वस्तुरूपसे समवाय अर्थात् समूह वह अर्थ समय है, अर्थात् सर्वपदार्थसमूह वह अर्थसमय है । उसमें, यहाँ ज्ञानसमयकी प्रसिद्धिके हेतु शब्दसमयके संबंधसे अर्थसमयका कथन ( श्रीमद भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव ) करना चाहते हैं।
अब, उसी अर्थसमयका लोक और अलोकके भेदके कारण द्विविधपना है। वहीं पंचास्तिकायसमूह जितना है उतना लोक हैं । उससे आगे अमाप अर्थात् अनन्त अलोक है । वह अलोक अभावमात्र नहीं हैं किन्तु पंचास्तिकायसमूह जितना क्षेत्र छोड़कर शेष अनन्तक्षेत्रवाला आकाश है ।।३।।
संस्कृत तात्पर्य वृत्ति गाथा-३ अथ गाथापूर्वार्द्धन शब्द-ज्ञानार्थ-रूपेण त्रिधाभिधेयतं समयशब्दस्य, उत्तरार्द्धन तु लोकालोकविभागं च प्रतिपादयामीत्यभिप्रायं मनसि धृत्वा सूत्रमिदं कथयति । एवमग्रेपि वक्ष्यमाणं विवक्षिताविवक्षितसूत्रार्थं मनसि संप्रधार्य, अथवास्य सूत्रस्याग्रे सूत्रमिदमुचितं भवतीत्येवं निश्चित्य सूत्रमिदं प्रतिपादयतीति पातनिकालक्षणमनेन क्रमेण यथासंभवं सर्वत्र ज्ञातव्यम्, समताओ पंचण्हं-पंचानां जीवाद्यर्थानां समवायः समूहः, समयमिणं-समयोयमिति जिणवरेहिण पण्णत्तंजिनवरैः प्रज्ञप्त: कथित: । सो चेव हवदि लोगो-स चैव पंचानां मेलापक: समूहो भवति, स कः, लोकः, तत्तो-ततस्तस्मात्पंचानां जीवाद्यर्थानां समवायादहिभूत: अमओ-अमितोऽप्रमाण: