________________ है, तब उसके साथ सूक्ष्म शरीर अवश्य ही रहते हैं। वे सूक्ष्म शरीर दो हैं-तैजस और-कार्मण / तैजस शरीर है-तेजोमय पुद्गलों का और कार्मण शरीर है-कर्म पुद्गलों का। कर्म का शरीर निश्चित ही उसके साथ रहता है। कर्म शरीर के बिना नया जन्म नहीं होता, नया शरीर प्राप्त नहीं होता। तैजस शरीर का फोटो लिया जा सकता है, केवल आत्मा का फोटो नहीं लिया जा सकता। - कर्म की चर्चा का अर्थ है-अतीत की चर्चा / हमारी वर्तमान की यात्रा से कर्म का कोई सम्बन्ध नहीं है। उसका सम्बन्ध है अतीत की यात्रा से। अतीत में जो हमारी प्रवृत्ति हुई है, अतीत में जो कुछ हमने किया है, उसका सम्बन्ध हमारी आत्मा से स्थापित हो जाता है। यह है वर्तमान के माध्यम से अतीत को समझने का प्रयत्न। . कर्म पौद्गलिक है। महावीर की यह एक महत्त्वपूर्ण स्थापना है। महावीर ही एक अकेले व्यक्ति हुए हैं जिन्होंने यह सिद्धांत स्थापित किया कि कर्म पौद्गलिक है। अन्यान्य कर्मवादी दार्शनिकों ने कर्म को वासना के रूप में स्वीकार किया है, संस्कार के रूप में स्वीकार किया है, किन्तु पौद्गलिक रूप में किसी ने स्वीकार नहीं किया। कर्म एक रासायनिक प्रक्रिया है। जैसे हमारी ग्रन्थियों की रासायनिक प्रक्रिया होती है, वैसे ही कर्म की भी रासायनिक प्रक्रिया होती है। कर्म पोद्गलिक पदार्थ है। कर्म न तो कोई वासना है, न कोई संस्कार है। वासना और संस्कार-ये हमारे ज्ञान के क्रम में होने वाली कड़ियां हैं। हम किसी वस्तु को जानते हैं। सबसे पहले अवग्रह होता है-उस वस्तु का सामान्य ग्रहण होता है। अवग्रह के बाद ईहा होती है। गृहीत वस्तु पर विमर्श होता है कि यह वस्तु क्या है? कोई भी नयी वस्तु को हमने देखा, जाना, ग्रहण किया। फिर विमर्श प्रारम्भ होता है कि यह वस्तु क्या है? क्या होनी चाहिए? विमर्श करते-करते हम निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। अनेक संशयों में से गुजरते हुए, अनेक तर्क-वितर्क की घाटियों को पार करते हुए, जब कोई निश्चित प्रमाण मिलता हैं, निश्चित आधार प्राप्त होता है, तक हम निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि यह वस्तु अमुक है। यह अवाय है-निश्चयात्मक ज्ञान है। अब वस्तु के प्रति संशय नहीं कर्म : चौथा आयाम 17