Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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दृष्टिगत होती है। यह भिन्नता इतनी अधिक है कि समस्त बीय जात विमित्रताओं का एक आश्चर्यजनकः संग्रहालय (अजायबघर) प्रतीत होता है ।
जीव जगत की विभिन्नसा, इतनी अनन्स हैं कि एक ही जाति के लोगों को भी परस्पर एक दुसरे से तुलना नहीं की जा सकती है। हम अपनी मनुष्य जाति को ही देख लें । सन्नके हाथ-पैर आदि अंग-गांग हैं, लेकिन भाकृति समान नहीं है, कोई लम्बा है तो कोई दिगना, कोई गौर वर्ण है तो कोई कृष्ण वर्ण आदि। यह तो हुई शारीरिक दृष्टि की विभिन्नता, लेकिन वोनिक दृष्टि की विभिन्नता का विचार करें तो किसी की बुद्धि मन्द है और कोई कुशाण नुधि, और. इसके बीच भी अनेक प्रकार की तरतमता देखने में आसी.ई. इसी प्रकारको अन्यान्य विभिन्नताएँ हम प्रतिदिन देखते हैं. अनुभव करसे एक माना। जाति में भी अनेकताओं की भरमार है सो अन्य पशु, पक्षी, देव, नारकी र में विद्यमान जीवों में पहने बाली भिन्नताभों की शाह लेना से सम्भव हो सकता है? फिर भी अध्यात्मविज्ञानी सर्वनों ने इन अनन्त भिन्नताओं का मार्गमा के रूप में वर्गीकरण करते हुए मार्गणा लक्षण कहा है.....
जीथानों और गुणस्थानों में विद्यमान जीव जिन भावों के द्वारा अथवा जिन पर्यायों के द्वारा अनुमार्गण किये जाते हैं खो जाते हैं. सरर गनेशणी, मीमांसा की जाती है, उन्हें मार्गमा कहते हैं । ___ इस गोषणा के कार्य को सरल और व्यवस्थित रूप देने के लिए मार्गणा स्थान के चौदह विभाग किये हैं और इन पौदह विभागों के भी अचान्सर विभाग हैं। इनके नाम और अनान्तर भेदों की संज्या, नाम आदि यथास्थान इसी अन्य मैं अन्यत्र दिये गये जिनमें समस्त जीवों की बाय एवं मातरिक जीवन सम्बन्धी अनन्त भिन्नताएँ वर्गीकृत हो जाती है।
इस तृतीय कर्मग्रन्थ में मानों के आधार ो गुणस्थानों को लेकर बन्धस्वामित्व का काथन किया गया है अर्थात किस-किस माणा में कितने मुमस्थान सम्भव हैं और उन मार्गणावर्ती जीवों में सामान्य से तथा गुणस्थानों के विभागानुसार कर्मबन्धः की योग्यताओं का क्यन किया गया है। ....... Frefareer कारण
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. . अर प्रत यह है कि जीदों में विद्यमान पिमित्रतामों, विविधताओं का