Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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प्रस्ताव ना
कर्मग्रन्थों में जीवस्थान, मार्गणास्थान और
बतलाई जाती है ।
स्थान इन तीन प्रकारों (द्वारों द्वारा संसारी जीवों की विविताओं, विकान्सुखता मादि का कव हिक रूप में विवेचना है। इन तीनों में से जीवस्थान के द्वारा संसारी जीवों की शारीरिक आकार-प्रकार की fafe गुणस्थानों में आत्मा की सघन कर्मा दशा से लेकर परम निर्मल विकास श्री उज्ज्वल एवं सर्वोच्च भूमिका तक विकासोन्मुखी *मद श्रेणियों का कथन है और मार्गणास्थानों में आत्मा की दोनों स्थितियों का बाह्य (शारीरिक) और आतंरिक (आत्मिक ) भितra, fवविधताओं का वर्गीकरण करते हुए विवे वन किया गया है । इस दृष्टि से देखें तो मार्गास्थान मध्य द्वार (देहली)क्षेपक न्याय के समान अबस्थान के शारीरिक-माह्य और गुणस्थान के बास्मिक तरिक दोनों प्रकार के कथनों को अपने से पति करता है ।
इसके अतिरिक्त मार्गणास्थान की अपनी एक और विशेषता है कि जीवस्थान सिर्फ जीवों के प्रकारों, विविधताओं का कथन करता है और गुणस्थान आत्मा के क्रमभावी विकास को कमिक अवस्थाओं की सूचना करते हैं अतः उनका एक दुसरे के साथ सम्बन्ध नहीं है, वे कमभावी होते हैं; लेकिन मार्गणास्थान सहभावी हैं। इनका जीवस्थानों के साथ भी सम्बन्ध है और गुणस्थानों के साथ भी। दोनों प्रकार की मित्रताओं वाले जीवों का किसी न किसी मार्गणास्थान में अवश्य अन्तर्भाव- समावेश हो जाता है 1
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मामा का समय
संसार में अनन्त जीव हैं और उन जीवों के बाह्य व आन्तरिक जीवन की निर्मिति में अनेक प्रकार की विचित्रता, विभिता, पवक्ता का दर्शन होता है । शरीर के आकार-प्रकार, रूप-रंग, इन्द्रिय-रचना, हलन चलन, गति, विचार, afae refधकता आदि आदि अनेक रूपों में एक दूसरे जीव में भिन्नता
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