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साहित्य समाज और जैन संस्कृत महाकाव्य
बिम्बित समाज के तथ्य घटना परक दृष्टि से ऐतिहासिक न हो सकें परन्तु सामाजिक इतिहास की मूल प्रवृत्तियों का प्रामाणिक विश्लेषरण उनके द्वारा होता ही है ।
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'साहित्य' एवं 'समाज' के वास्तविक विशदीकरण के लिए हमें इनसे सम्बद्ध शास्त्रों की ओर देखना पड़ता है । 'साहित्य' का शास्त्रीय पक्ष 'साहित्यशास्त्र' के रूप में बहुचर्चित एवं प्रत्यन्त लोकप्रिय रहा है परन्तु सांस्कृतिक अध्ययन के क्षेत्र में अनुसन्धान करने वाले विद्वान् 'समाज' की शास्त्रीय प्रवृत्तियों को अनदेखा करते हुए सामाजिक इतिहास लेखन की ओर प्रवृत्त होते हैं । वास्तव में सामाजिक अध्ययन की रूपरेखा 'समाजशास्त्रीय' अनभिज्ञता के बिना अधूरी ही समझी जानी चाहिए । मानवीय व्यवहार को उचित सन्दर्भ देने में 'समाजशास्त्र' अत्यन्त उपयोगी एवं अत्याधुनिक पद्धति सिद्ध हो सकती है । 'समाजशास्त्र' न केवल प्राच्य भारतीय विद्याओं के क्षेत्र में प्रपितु सम्पूर्ण विश्व की विविध अध्ययन विद्याओं के क्षेत्र में भी सर्वथा एक नवीन शास्त्र के रूप में आविर्भूत हुआ । आविष्कार आधुनिक युग की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है जो निरन्तर एक प्रगतिशील विज्ञान के रूप में सामाजिक अनुसन्धान को नवीन दिशा प्रदान कर रहा है ।
समाजशास्त्र का
प्रस्तुत शोध प्रबन्ध का प्रथम अध्याय 'साहित्य' और 'समाज' के सैद्धान्तिक विवेचन से सम्बद्ध है । इस अध्याय में यह पुष्ट करने का प्रयास किया गया है कि सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तनों तथा वर्ग संघर्षो की पृष्ठभूमि में साहित्य निर्माण की दिशा क्या थी तथा भारतीय साहित्यशास्त्र सम्बन्धी मान्यतानों में युगीन सामाजिक मूल्यों एवं आदर्शों को किस रूप में संग्रहीत किया गया ? समाज धर्मी साहित्य की प्रवृत्तियों को उजागर करने वाले इस विवेचन में अपेक्षित समाजशास्त्रीय तत्त्वों एवं सिद्धान्तों की संक्षिप्त रूप से चर्चा की गई है जो शोध प्रबन्ध में विवेचित सामाजिक संस्थाओं के वैज्ञानिक स्वरूप को समझने की दृष्टि से भी उपयोगी है । सर्वप्रथम प्रस्तुत है 'समाज शास्त्र' का संक्षिप्त परिचय
'समाजशास्त्र' - समाज का एक व्यवस्थित विवेचन
'समाजशास्त्र' अर्थात् ( Sociology ) शब्द का आविष्कार सर्वप्रथम फ्रेंच दार्शनिक 'आगस्ट काटे' (August Comte) ने उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में किया तथा इसी के साथ समाजशास्त्र की नींव भी डाली । वर्तमान दो शताब्दियों में इस विज्ञान पर पर्याप्त कार्य हुआ है, किन्तु अभी भी यह एक प्रगतिशील विज्ञान होने के कारण पूर्ण रूप से व्यवस्थित नहीं हो पाया है । 'काटे' महोदय संसार भर के सभी विज्ञानों को एकीकृत कर उनका सम्बन्ध मानव व्यवहारों से जोड़ना चाहते थे । इसी दृष्टि से उन्होंने 'समाजशास्त्र' पर प्रकाश डाला है ।