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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
अनुसार तो साहित्य में समाज आदि का औचित्य अप्रासङ्गिक ही ठहरता है किन्तु 'साहित्य समाज का दर्पण है' जैसी मान्यताएं साहित्य और समाज के सम्बन्ध को घनिष्ठ बनाती जान पड़ती हैं। आवश्यकता है साहित्य और समाज की मूल प्रवृतियों पर वैज्ञानिक एवं व्यवस्थित ढंग से प्रकाश डालने की। आधुनिक आलोचकों के अतिरिक्त प्राचीन साहित्य समीक्षकों की मान्यताओं का भी पर्यालोचन किया जाए तो हम देखते हैं कि काव्य प्रयोजनों के सन्दर्भ में प्राचार्य दण्डी जैसे साहित्यशास्त्री ने एक ऐसे काव्य प्रयोजन की ओर हमें आकृष्ट किया है जिसका उद्देश्य 'इतिहास संरक्षण' रहा था। पूर्वकालीन राजाओं का यश रूपी बिम्ब वाङमय रूपी दर्पण को प्राप्त करके प्रतिबिम्बित हो जाता है। उन राजाओं का अस्तित्व यद्यपि अाज नहीं है तथापि यशोबिम्ब रूपी उनका इतिहास काव्य के माध्यम से ही प्रतिबिम्बित हो रहा है
प्रादिराजयशोबिम्बमादशं प्राप्य वाङ्मयम् ।
तेषामसन्निधानेऽपि न स्वयं पश्य नश्यति ॥'
साहित्य एवं समाज जैसे परस्पर सम्बद्ध दोनों पक्षों पर एक दूसरे के पड़ने वाले प्रभाव की जब हम चर्चा प्रारम्भ करते हैं तो देखा जाता है कि कभी समाज से अनुप्रेरित होकर साहित्य के निर्माण की पृष्ठभूमि तैयार होती है तो कभी साहित्य एक प्रभावशाली माध्यम बनकर सामाजिक अनुप्रेरणा की भूमिका बनाता है। इस प्रकार साहित्य एवं समाज परस्पर अनुप्रेरणाभाव से एक दूसरे को प्रभावित करता है और प्रभावित होता है तो समाज को मूल इकाई ‘मनुष्य' और उसका 'व्यवहार' है। साहित्य और समाज की दोनों कड़ियों को जोड़ने वाला है'मनुष्य', जिसकी अभिव्यक्ति 'साहित्य' है, और 'व्यवहार' 'समाज' कहलाता है । इस प्रकार 'साहित्य' और 'समाज' कभी कभी एक दूसरे के पूरक भी बन जाते हैं और साहित्य' 'समाज' का दर्पण सिद्ध होता है । साहित्य और समाज की सम प्रवृत्तियों में स्वरूप की दृष्टि से एक महान् विषमता भी देखने को मिलती है, वह है साहित्य का मूर्त रूप और समाज का अमूर्त रूप । मूर्त साहित्य से अमूर्त समाज की गवेषणा निःसन्देह एक अत्यन्त दुरूह कार्य है । प्रत्येक अध्येता कुछ समस्याओं एवं मूल्यों के के सन्दर्भ में साहित्य से अभिव्यंजित समाज को एक रूप तथा आकार देने की चेष्टा करता है परन्तु आवश्यक नहीं कि वह वास्तविकता का समग्र उद्घाटन हो। प्रयोजन की अपेक्षा, तथा साक्ष्यों की चरितार्थता से भी उद्घाटित समाज का स्वरूप सङ्कीर्ण या व्यापक हो सकता है। यदि काल का दीर्घ फलक साहित्य-सीमा का निर्धारण करे तो इतिहास चेतना की अपेक्षा युग चेतना का दिग्दर्शन अधिक होता है । पौराणिक एवं अ-ऐतिहासिक कथानकों पर प्राघृत साहित्य के माध्यम से प्रति
१. काव्यादर्श १५