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प्रथम अध्याय
प्रस्तावना
साहित्य समाज और जैन महाकाव्य
१. भारतीय साहित्य और समाज : एक सैद्धान्तिक विवेचन
इतिहास के लक्ष्य आज बदल चुके हैं । अब इतिहास जन जन की आकांक्षाओं तथा भावनाओं का प्रतिलेखन करता है, केवल राजवंशों के उत्थान - पतन का नहीं । इन बदले हुए इतिहास मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में प्राच्य विद्या अनुसन्धान की एक महत्त्वपूर्ण प्रवृति साहित्य के माध्यम से सांस्कृतिक एवं सामाजिक इतिहास लेखन की ओर विशेष गतिशील है । साहित्यानुप्रेरित सांस्कृतिक अध्ययन की इस अत्याधुनिक एवं लोकप्रिय अध्ययन शाखा के अन्तर्गत इतिहास के घटना केन्द्रित एकाङ्गी चित्ररण की अपेक्षा प्रवृत्ति-मूलक समाज के व्यापक चित्रण पर बल दिया जाता है । परिणामतः आज केवल मात्र प्राचीन भारतीय साहित्य के आधार पर ही वेदकालीन समाज से लेकर उत्तरवर्ती समाज की विविध राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक, भौगोलिक आदि परिस्थितियों एवं प्रवृत्तियों को जानना सुगम हो गया है । इस अध्ययन शाखा को प्रोत्साहित करने वाले प्रसिद्ध विद्वान् श्री वासुदेव शरण अग्रवाल महोदय के 'पाणिनिकालीन भारतवर्ष' नामक अनुसन्धान कार्य से प्राच्यविद्या-अनुसन्धान के क्षेत्र में एक ऐसा मानदण्ड उपस्थित हुआ जिसकी प्रेरणा से भारतीय इतिहास लेखन को कतिपय नवीन मूल्य भी प्राप्त हुए और नई दिशा भी । साहित्यिक साक्ष्यों के स्रोतों से प्राचीन राजवंशों के इतिहास पर पूरक प्रकाश पड़ा तथा विभिन्न युगों की सामाजिक प्रवृत्तियों तथा लोक चेतना के विविध पक्षों से हम परिचित हो सके ।
जैन संस्कृत
जैन संस्कृत महाकाव्य मूलतः साहित्य ग्रन्थ हैं तो सामाजिक परिस्थितियाँ या उनसे अनुरञ्जित सांस्कृतिक इतिहास का सम्बन्ध 'समाज' से है । इस प्रकार 'साहित्य में 'समाज' खोजने का प्रौचित्य भी एक वैज्ञानिक एवं सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि पर अवलम्बित है । आधुनिक युग की प्रचलित मान्यताओं के सन्दर्भ में 'कला कला के लिए' (आर्ट फार द सेक आफ आर्ट) एक बहुचर्चित मान्यता है । इस मान्यता के