Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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(3) अपौद्गलिक और अमूर्तिक आत्मा पौद्गलिक एवं मूर्त्तिक कर्मों के साथ बद्ध होकर विकारी होना कैसे सम्भव हो सकता है? (इस प्रकार के बन्ध) का कोई दृष्टान्त भी उलपब्ध नहीं है) स्वर्ण और पाषाण के अनादिबन्ध का जो दृष्टान्त भी दिया जाता है, वह विषम दृष्टान्त है और एक प्रकार से तो वह जीव का पौद्गलिक होना ही सूचित करता है।
(4) रागादिक को पौद्गलिक कहा गया है और रागादिक जीव के परिणाम हैं-बिना जीव के उनका अस्तित्त्व नहीं। (यदि जीव पौद्गलिक नहीं है, तो रागादि भाव पौद्गलिक कैसे सिद्ध हो सकेंगे?) इसके सिवाय पौद्गलिक जीवात्मा में कृष्ण, नीलादि लेश्याएँ कैसे बन सकती हैं?
जैन-दर्शन जड़ और चेतन के द्वैत को और उनकी स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार करता है। वह सभी प्रकार के अद्वैतवाद का विरोध करता है, चाहे वह शंकर का आध्यात्मिक अद्वैतवाद हो, अथवा चार्वाक एवं अन्य वैज्ञानिकों का भौतिकवादी अद्वैतवाद हो, लेकिन इस सैद्धान्तिक मान्यता से उपर्युक्त शंकाओं का समाधान नहीं होता। इसके लिए हमें जीव के स्वरूप को उस सन्दर्भ में देखना होगा, जिसमें उपर्युक्त शंकाएँ प्रस्तुत की गयी हैं। प्रथमतः, संकोच-विस्तार तथा उसके आधार पर होने वाले सौक्ष्म्य एवं स्थौल्य तथा बन्धन और रागादिभाव का होना सभी बद्ध जीवात्माओं या हमारे वर्तमान सीमित व्यक्तित्व के कारण हैं। जहाँ तक सीमित व्यक्तित्व या बद्ध जीवात्मा का प्रश्न है, वह एकान्त रूप से न तो भौतिक है और न अभौतिक। जैन चिन्तक मुनि नथमलजी(महाप्रज्ञ जी) इन्हीं प्रश्नों का समाधान करते हुए लिखते हैं, कि “मेरी मान्यता यह है कि हमारा वर्तमान व्यक्तित्व न सर्वथा पौद्गलिक है और न सर्वथा अपौद्गलिक। यदि उसे सर्वथा अपौद्गलिक मानें, तो उसमें संकोच-विस्तार, प्रकाशमय, अनुभव, ऊर्ध्वगामीधर्मिता, रागादि नहीं हो सकते। मैं जहाँ तक समझ सकता हूँ, कोई भी शरीरधारी जीव अपौद्गलिक नहीं है। जैन आचार्यों ने उस में संकोच-विस्तार या बन्धन आदि माने हैं, अपौद्गलिकता उसकी अन्तिम परिणति है, जो शरीर-मुक्ति से पहले कभी प्राप्त नहीं होती है (तट दो प्रवाह एक पृ.54)।" मुनिजी के इस कथन को अधिक स्पष्ट रूप में यों कहा जा सकता है कि जीव के अपौद्गलिक स्वरूप उसकी उपलब्धि नहीं, आदर्श हैं। जैन-दर्शन का लक्ष्य इसी अपौद्गलिक स्वरूप की उपलब्धि है। जीव की अपौद्गलिकता उसका आदर्श है, जागतिक तथ्य नहीं, जबकि ये सभी बातें बद्ध जीवों में ही पायी जाती हैं। आत्मा और शरीर का सम्बन्ध
महावीर के सम्मुख जब यह प्रश्न उपस्थित किया गया कि "भगवान! जीव वही है, जो शरीर है, या जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है?" तब महावीर ने उत्तर दिया- “हे गौतम! जीव शरीर भी है और शरीर से भिन्न भी है (भगवतीसूत्र
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
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