Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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के कारण यह चार प्रकार का है, जबकि अर्थावग्रह पांचों इन्द्रियों और मन से होने के कारण छः प्रकार का होता है । व्यञजनावग्रह के चार एवं अर्थावग्रह के छः इस प्रकार अवग्रह के दस, ईहा के छः, अवाय के छः, धारणा के छः, कुल 28 भेद होते हैं। इनका उपरोक्त 12 प्रकारों से गुणा करने पर मतिज्ञान के कुल 336 भेद माने गये हैं ।
एक अन्य अपेक्षा से मतिज्ञान के अन्य दो भेद भी हैं- 1. श्रुतनिश्रित मतिज्ञान और 2. अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान । भाषायी ज्ञान के आधार पर मतिज्ञान की जो अभिव्यक्ति होती है, वह श्रुत - निश्रित मतिज्ञान है, किन्तु अन्तःप्रज्ञा या विवेकबुद्धि के द्वारा जो मतिज्ञान होता है, वह अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान है । श्रुतनिश्रित मतिज्ञान को बौद्धिक ज्ञान भी कहा गया है, इसके चार भेद हैं- 1. औत्पातिक बुद्धि (तात्कालिक बुद्धि) 2. वैनयिक बुद्धि (गुरु परम्परा से प्राप्त बुद्धि) 3. कर्मजा बुद्धि (शिल्पज्ञान की शक्ति) 4. परिणामिकी बुद्धि ( किसी कार्य को करते हुए देखकर उसे सीख जाने की शक्ति ) इन चारों को मिलाने पर मतिज्ञान के 336+4=340 भेद भी होते हैं।
मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का सम्बन्ध
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मतिज्ञान और श्रुतज्ञान एक दूसरे से अभिन्न हैं, जहाँ तक इन्द्रिय संवेदनाजन्य मतिज्ञान का प्रश्न है, वह ज्ञान श्रुतज्ञान का आधार बनता है । इन्द्रिय संवेदनाओं का अर्थबोध श्रुतज्ञान के अन्तर्गत आता है, अतः ऐन्द्रिक संवेदनाओं के बिना श्रुतज्ञान नहीं होता । ऐन्द्रिक संवेदनाओं से हम जो अर्थ का बोध करते हैं, वही श्रुतज्ञान कहा जाता है । अतः तत्त्वार्थसूत्र का यह कथन सत्य है कि मतिज्ञान पूर्वक ही श्रुतज्ञान होता है, किन्तु यह भी एकान्तः सत्य नहीं है, जिन प्राणियों के मन है, अर्थात् जिनमें मानसिक स्तर पर संकल्प - विकल्प चलते हैं वे सभी विकल्प शब्दों पर आधारित होने से मतिज्ञान के लिए भी श्रुतज्ञान आवश्यक होता है, क्योंकि बिना शाब्दिक अर्थबोध के विचार या विकल्प संभव नहीं होते इसलिए जैन आचार्यों ने इस दृष्टि से मतिज्ञान के भी दो भेद किए हैं- 1. श्रुत निश्रित मतिज्ञान और 2. अश्रुत निश्रित मतिज्ञान । मात्र ऐन्द्रिक संवेदनों से जो बोध प्राप्त होता है, वह अश्रुत निश्रित मतिज्ञान है, जबकि चित्त में जो विकल्प उत्पन्न होते हैं, वे विकल्प शब्द रूप होने से विकल्प या विचार रूप मतिज्ञान श्रुत निश्रितमतिज्ञान कहलाता है, क्योंकि विकल्प शब्दों के बिना नहीं बनते हैं ।
जैन दार्शनिकों ने मतिज्ञान और श्रुतिज्ञान का संबंध बताते हुए, एकांगी . दृष्टिकोण नहीं अपनाया है, एक ओर वे यह मानते हैं ऐन्द्रिक संवेदनों से जो ज्ञान होता है, उसमें मतिज्ञान प्रथम और श्रुतज्ञान बाद में होता है। जबकि इसके विपरीत
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
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