Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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उत्तराध्ययन में लोकायतदर्शन
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उत्तराध्ययन में चार्वाक दर्शन को जन - श्रद्धा (जन - सिद्धि) कहा गया हैं | 10 सम्भवतः लोकसंज्ञा और जनश्रद्धा में लोकायत दर्शन के ही पूर्व नाम हैं । उत्तराध्ययन में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ये सांसारिक विषय ही हमारे प्रत्यक्ष के विषय हैं । परलोक को तो हमने देखा ही नहीं । वर्तमान के काम भोग हस्तगत हैं जबकि भविष्य में मिलने वाले ( स्वर्ग-सुख ) अनागत अर्थात् संदिग्ध हैं। कौन जाता है कि परलोक है भी या नहीं ? इसलिए मैं तो जनश्रद्धा के साथ होकर रहूँगा।" इस प्रकार उत्तराध्ययन के पंचम अध्याय में चार्वाकों की पुनर्जन्म के निषेध की अवधारणा का उल्लेख एवं खण्डन किया गया हैं । इसी प्रकार उत्तराध्ययन के चौदहवें अध्याय में भी चार्वाकों के असत् से सत् की उत्पत्ति का एवं पंचमहाभूत से चेतना की उत्पत्ति का सिद्धान्त प्रस्तुत किया गया है। जो वस्तुतः असत् से सत् की उत्पत्ति का सिद्धान्त है । यद्यपि उत्तराध्ययन में असत्कार्यवाद का जो उदाहरण प्रस्तुत किया गया है, वह असत्कार्यवाद के पक्ष में न जाकर सत्कार्यवाद के पक्ष में ही जाता हैं । उसमें कहा गया है कि जैसे- अरणि में अग्नि, दूध में घृत और तिल में तेल असत् होकर भी उत्पन्न होता है, उसी प्रकार शरीर में जीव भी असत् होकर ही उत्पन्न होता है और उस शरीर का नाश हो जाने पर वह भी नष्ट हो जाता हैं । 12 सम्भवतः उत्तराध्ययन में चार्वाकों के असत्कार्यवाद की स्थापना के पक्ष
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में ये सत्कार्यवाद की सिद्धि करने वाले उदाहरण इसलिये दिये गये होंगे, ताकि इनकी समालोचना सरलतापूर्वक की जा सके । उत्तराध्ययन में आत्मा को अमूर्त होने के कारण इन्द्रिय ग्राह्य नही माना गया है और अमूर्त होने से नित्य कहा गया हैं । " उपरोक्त विवरण से चार्वाकों के सन्दर्भ में निम्न जानकारी मिलती है
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1. चार्वाकदर्शन को "लोकसंज्ञा" और "जन श्रद्धा" के नाम से अभिहित किया
जाता था ।
2. चार्वाक दर्शन आत्मा को स्वतन्त्र तत्त्व नहीं मानता था, अपितु पंचमहाभूतों से चेतना की उत्पत्ति बताता था ।
कारणतावाद में असत्कार्यवाद अर्थात असत् से सत् की उत्पत्ति के सिद्धान्त को स्वीकार करता था ।
4. शरीर के नाश के साथ आत्मा के विनाश को स्वीकार करता था तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त को अस्वीकार करता था । पुनर्जन्म की अस्वीकृति के साथ-साथ वह परलोक अर्थात् स्वर्ग-नरक की सत्ता को भी अस्वीकार करता था । वह पुण्य पाप अर्थात् शुभाशुभ कर्मों के शुभाशुभ फलों को भी अस्वीकार करता था, अतः कर्मसिद्धान्त का विरोधी था ।
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान