Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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गई है। सूत्र के प्रारम्भ में कहा गया है कि कुछ लोगो को यह ज्ञात नहीं होता है कि मेरी आत्मा औपपातिक (पुनर्जन्म करने वाली ) हैं । मैं कहाँ से आया हूँ और यहाँ से अपना जीवन समाप्त करके कहाँ जन्म ग्रहण करूंगा ? सूत्रकार कहता है कि व्यक्ति को यह जानना चाहिए कि मेरी आत्मा औपपातिक ( पुनर्जन्म ग्रहण करने वाली) है, जो इन दिशाओं और विदिशाओं में संचरण करती है और मैं भी ऐसा ही हूँ वस्तुतः जो यह जानता है - वही आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी हैं।' इस प्रकार इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में चार्वाक दर्शन की मान्यताओं के विरूद्ध चार बातों की स्थापना की गई है - आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद । आत्मा की स्वतंत्र और नित्य सत्ता को स्वीकार करना आत्मवाद हैं। संसार को यथार्थ मानकर आत्मा को लोक में जन्म-मरण करने वाला समझना लोकवाद हैं । शुभाशुभ कर्मों के शुभाशुभ फलों में विश्वास करना कर्मवाद हैं। आत्मा को शुभाशुभ कर्मों की कर्ता-भोक्ता एवं परिणामी ( परिवर्तनशील ) मानना क्रियावाद हैं। इसी प्रकार आचारांग में लोकसंज्ञा का परित्याग करके इन सिद्धान्तों में विश्वास करने का निर्देश दिया गया है । ज्ञातव्य है कि आचारांग में लोकायत या चार्वाक दर्शन का निर्देश लोक संज्ञा के रूप में हुआ हैं।' लोकसंज्ञा से ही लोकायत नामकरण हुआ होगा । यद्यपि इस ग्रन्थ में इन मान्यताओं की समालोचना तो की गई है किन्तु उसकी कोई तार्किक भूमिका प्रस्तुत नहीं की गई हैं । सूत्रकृतांग में लोकायत दर्शन
आचारांग के पश्चात् सूत्रकृतांग का क्रम आता हैं । इसके प्रथम श्रुतस्कन्ध को भी विद्वानों ने अतिप्राचीन (लगभग ई.पू. चौथी शती) माना हैं । सूत्रकृतांग के प्रथम अध्याय में हमें चार्वाक दर्शन के पंचमहाभूतवाद और तज्जीवतच्छरीवाद के उल्लेख प्राप्त होते हैं । इसमें पंचमहाभूतवाद को प्रस्तुत करते
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कहा गया है कि पृथ्वी, अप, तेजस्, वायु और आकाश ऐसे पाँच महाभूत माने गये हैं। उन पाँच महाभूतों से ही प्राणी की उत्पत्ति होती है और देह का विनाश होने पर देही का भी विनाश हो जाता है । साथ ही यह भी बताया गया है कि व्यक्ति चाहे मूर्ख हो या पण्डित प्रत्येक की अपनी आत्मा होती है जो मृत्यु के बाद नहीं रहती । प्राणी औपपातिक अर्थात् पुनर्जन्म ग्रहण करने वाले नहीं हैं । शरीर का नाश होने पर देही अर्थात् आत्मा का भी नाश हो जाता है । इस लोक से परे न तो कोई लोक है और न पुण्य और पाप ही हैं।' इस प्रकार सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में चार्वाक दर्शन की मान्यताओं का उल्लेख तो मिलता है किन्तु यहाँ भी उनकी कोई स्पष्ट तार्किक समालोचना परिलक्षित नहीं होती हैं । यद्यपि सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में चार्वाक प्रश्न की समीक्षा प्रस्तुत की गई है, किन्तु विद्वानों ने उसे किंचित् परवर्ती माना है। अतः उसके पूर्व हम उत्तराध्ययन का विववरण प्रस्तुत करेंगे। जैनागम और चार्वाक दर्शन
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