Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy

Previous | Next

Page 659
________________ मानसिक विक्षोभों के निराकरण के सन्दर्भ में ही उस पर विचार करना होगा। सम्भवतः इस संबंध में कोई भी दो मत नहीं होगा कि राग, द्वेष, तृष्णा, आसक्ति, ममत्व, ईर्ष्या, वैमनस्य आदि की मनोवृत्तियाँ हमारे सामाजिक जीवन के लिए अधिक घातक हैं। यदि इन मनोवृत्तियों से मुक्त होना ही मुक्ति का अर्थ है तो मुक्ति का संबंध हमारे सामाजिक जीवन के साथ जुड़ जाता है। निर्वाण मात्र एक मरणोत्तर अवस्था नहीं है अपितु वह हमारे जीवन से संबंधित है। भारतीय चिन्तकों ने मोक्ष को पुरूषार्थ माना है। उसका तात्पर्य यह है कि वह इसी जीवन से प्राप्तव्य है। जो लोग निर्वाण को एक मरणोत्तर अवस्था मानते हैं, वे निर्वाण के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ हैं। इस जीवनमुक्ति के प्रत्यय की सामाजिक सार्थकता को हम अस्वीकार भी नहीं कर सकते, क्योंकि जीवनमुक्त एक ऐसा व्यक्ति है जो सदैव लोक-कल्याणकारी होता है। बौद्ध दर्शन में बुद्ध, अर्हत् एवं बोधिसत्व की जो अवधारणाएँ प्रस्तुत की गयी है और उनके व्यक्तित्व को जिस रूप में चित्रित किया गया है, उससे हम निश्चय ही इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि निर्वाण के प्रत्यय की सामाजिक उपादेयता भी है। वह लोक मंगल और मानव-कल्याण का एक महान आदर्श माना जा सकता है। जन-जन को दुःखों से मुक्त करना ही वास्तविक मुक्ति है। बौद्ध दार्शनिकों में वैयक्तिक मुक्ति की अपेक्षा लोक-कल्याण के लिए प्रयत्नशील बने रहने को अधिक महत्व दिया है। बौद्ध-दर्शन में बोधिसत्व का जो आदर्श प्रस्तुत किया गया है, वह हमें स्पष्ट रूप से यह बताता है कि केवल वैयक्तिक मुक्ति को प्राप्त कर लेना ही जीवन का अन्तिम लक्ष्य नहीं है। बोधिसत्व तो लोकमंगल के लिए अपने बंधन और दुःख की कोई परवाह नहीं करता है, वह कहता है: बहुनामेकदुःखेन यदि दुःख विगच्छति। उत्पाद्यमेव तद् दुःखं सदयेन् परात्मनो।। मुच्यमानेषु सत्त्वेषु ये ते प्रमोद्यसागराः। तैरेव ननु पर्याप्तं, मोक्षेणारसिकेन किम् ।। यदि एक के कष्ट उठाने से बहुतों का दुःख दूर होता हो, तो करूणापूर्वक उनके दुःखों को दूर करना ही अच्छा है। प्राणियों को दुःखों से मुक्त होता हुआ देखकर जो आनन्द प्राप्त होता है, वह क्या कम है, फिर नीरस निर्वाण प्राप्त करने की इच्छा की क्या आवश्यकता है? इस प्रकार हम देखते हैं कि निर्वाण की अवधारणा भी सामाजिकता की विरोधी नहीं है। वस्तुतः बौद्ध दर्शन में निर्वाण का अर्थ है आत्मभाव का पूर्णतया 646 जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान

Loading...

Page Navigation
1 ... 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720