Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 663
________________ 'सर्वधर्म समभाव' शब्द दिया था, जो अधिक महत्वपूर्ण और सार्थक है। सभी धर्मों की सापेक्षिक मूल्यवता को स्वीकार करते हुए उनके विकास के समान अवसर प्रदान करना ही धर्मनिरपेक्षता है। इसका तात्पर्य है कि धार्मिक दुर्भिनिवेश एवं मताग्रह से मुक्त होना है - यही दृष्टि की परिवासना से मुक्त होना है। वह किसी दृष्टि/ कर्मकाण्ड/उपासना पद्धति से बंधना नहीं है। इसी प्रकार धर्म शब्द भी अनेक अर्थ में प्रयुक्त होता है। वह एक ओर वस्तुस्वरूप का सूचक है तो दूसरी ओर कर्तव्य और किसी साधना या उपासना की पद्धति विशेष का भी सूचक है। अतः जब हम धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा के सन्दर्भ में धर्म शब्द का प्रयोग करें, तो हमें उसके अर्थ के संबंध में स्पष्टता रखनी होगी। प्रस्तुत सन्दर्भ में धर्म का अर्थ न स्वभाव है, न कर्त्तव्य और न सदाचरण है। धर्म निरपेक्षता के संदर्भ में धर्म शब्द आध्यात्मिक साधना और उपासना की पद्धति विशेष का परिचायक है, जो किसी सीमा तक नीति और आचार के विशेष नियमों से भी जुड़ा है। अतः धर्मनिरपेक्षता का तात्पर्य उपासना या साधना की विभिन्न पद्धतियों की सापेक्षिक सत्यता और मूल्यवता को स्वीकार करना है। संक्षेप में किसी एक धर्म सम्प्रदाय कर्मकाण्ड और उपासना की पद्धति के प्रति प्रतिबद्ध न होकर साधना और उपासना की सभी पद्धतियों को विकसित होने एवं जीवित रहने का समान अधिकार प्रदान करना ही धर्मनिरपेक्षता है। जब हम बौद्धधर्म के सन्दर्भ में इस धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा पर विचार करें तो हमें इस तथ्य को स्पष्ट रूप से स्वीकार कर लेना चाहिए कि बौद्धधर्म भी एक धर्मविशेष ही है, अतः उसमें धर्मनिरपेक्षता का वह अर्थ नहीं है जिसे सामान्यतया हम स्वीकार करते हैं। उसमें धर्मनिरपेक्षता का तात्पर्य दूसरे धर्मों के प्रति समादर भाव से अधिक नहीं है। यह भी सत्य है कि बौद्धधर्म में अन्य धार्मिक एवं दार्शनिक मान्यताओं की उसी प्रकार समीक्षा की गई है जिस प्रकार अन्य धर्मों एवं दर्शनों में बौद्धधर्म की गई थी। फिर भी बौद्धधर्म में सर्वधर्म समभाव एवं धार्मिक सहिष्णुता के पर्याप्त आधार है। भारतीय संस्कृति और भारतीय चिन्तन प्रारम्भ से ही उदारवादी और समन्वयवादी रहा है। भारतीय चिन्तन की इसी उदारता एवं समन्वयवादिता के परिणामस्वरूप हिन्दूधर्म विभिन्न साधना और उपासना की पद्धतियों का एक ऐसा संग्रहालय बन गया कि आज कोई भी विद्वान हिन्दू धर्म की सुनिश्चित परिभाषा देने में असफल हो जाता है। उपासना एवं कर्मकाण्ड की आदिम प्रवृत्तियों से लेकर अद्वैत वेदान्त का श्रेष्ठतम दार्शनिक सिद्धान्त उसमें समाहित है। प्रकृति पूजा के विविध रूपों से लेकर निर्गुण-साधना का विकसित रूप उसमें परिलक्षित होता है। उसकी धार्मिक समन्वयशीलता हमारे सामने एक अद्वितीय आदर्श उपस्थित करती है। 650 जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान

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