Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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हैं कि अवतार के समान बोधिसत्व भी लोकमंगल के लिए अपने जीवन को उत्सर्ग कर देता है- प्राणियों को कल्याण ही उसके जीवन का आदर्श है। बोधिसत्व और अवतार की अवधारणा में तात्त्विक अन्तर होते हुए लोकमंगल के सम्पादन में दोनों समान रूप से प्रवृत्त होते हैं। जैनों के तीर्थकर और हीनयान के बुद्ध के आदर्श ऐसे आदर्श हैं, जो निर्वाण के उपरान्त अपने भक्तों की पीड़ा के निवारण में सक्रिय रूप से साझीदार नहीं बन सकते हैं। अतः भक्त हृदय और मानव को सन्तोष देने के लिए जहाँ जैनों ने शासन देव और देवियों (यक्ष-यक्षियों) की अवधारणा प्रस्तुत की, तो महायान सम्प्रदाय ने तारा आदि देवी-देवताओं को अपनी साधना में स्थान प्रदान किया। इस प्रकार हम देखते हैं कि महायान सम्प्रदाय वैदिक परम्परा में विकसित गीता की अनेक अवधारणाओं से वैचारिक साम्य रखता है। प्रवृत्तिमार्गी धर्म के अनेक तत्व महायान परम्परा में इस प्रकार आत्मसात् हो गये कि आगे चलकर उसे भारत में हिन्दू धर्म के सामने अपनी अलग पहचान बनाये रखना कठिन हो गया और उसे हिन्दू धर्म ने आत्मसात् कर लिया है। जबकि उसी श्रमण धारा का जैनधर्म निवृत्त्यात्मक पक्ष पर बराबर बल देता रहा है और इस प्रकार उसने अपना अस्तित्व बनाये रखा।
संदर्भ - 1. बोधिचर्यावतार, 8/99 2. वही, 8/116 3. वही, 8/109 4. अंगुत्तरनिकाय, 1/5 5. थेरगाथा, 941-942 6. बौद्ध दर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, पृ. 609 7. गीता, 3/13 8. वही, 3/12 9. वही, 5/25, 12/4 10. वही, 3/18 11. वही, 3/20 12. वही, 4/8 13. शिक्षासमुच्चय, अनुदति धर्मदूत, मई 1941
बौद्ध धर्मदर्शन
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