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अनुसार प्रस्थान-भेद के लेखक की एक विशेषता अवश्य है, जो उसे पूर्व उल्लिखित वैदिक परम्परा के अन्य दर्शन- संग्राहक ग्रन्थों से अलग करती है, वह यह कि इस ग्रन्थ में वैदिक दर्शनों के पारस्परिक विरोध का समाधान यह कह कर किया गया है कि इन प्रस्थानों के प्रस्तोता सभी मुनि भ्रान्त तो नहीं हो सकते, क्योंकि वे सर्वज्ञ थे। चूँकि बाह्य विषयों में लगे हुए मनुष्यों का परम पुरुषार्थ में प्रविष्ट होना कठिन होता है, अतएव नास्तिकों का निराकरण करने के लिए इन मुनियों ने दर्शन प्रस्थानों के भेद किये है। इस प्रकार प्रस्थान -भेद में यत्किंचित उदारता का परिचय प्राप्त होता है, किन्तु यह उदारता केवल वैदिक परम्परा के आस्तिक दर्शनों के सन्दर्भ में ही है, नास्तिकों का निराकरण करना तो प्रस्थान भेद एवं सर्वदर्शनकौमुदीकार को
ही है। इस प्रकार दर्शन - संग्राहक ग्रन्थों में हरिभद्र की जो निष्पक्षता और उदार दृष्टि है वह हमें अन्य परम्पराओं में रचित दर्शन - संग्राहक ग्रन्थों में नहीं मिलती है। यद्यपि वर्तमान में भारतीय दार्शनिक परम्पराओं का विवरण प्रस्तुत करने वाले अनेक ग्रन्थ लिखे जा रहे हैं, किन्तु उनमें भी कुछ लेखकों का उद्देश्य तो कहीं न कहीं अपने इष्ट दर्शन को ही अन्तिम सत्य के रूप में प्रस्तुत करना प्रतीत होता है ।
- हरिभद्र के पश्चात् जैन परम्परा में लिखे गए दर्शन- संग्राहक ग्रन्थों में अज्ञातकर्तृक ‘सर्वासिद्धान्तप्रवेशक' का स्थान आता है, किन्तु इतना निश्चित है कि यह ग्रन्थ किसी जैन आचार्य द्वारा प्रणीत है, क्योंकि इसके मंगलाचरण में 'सर्वभाव प्रणेतारं प्रणिपत्य जिनेश्वरं ' ऐसा उल्लेख है। पं. सुखलाल संघवी के अनुसार प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रतिपादन शैली हरिभद्र के षड्दर्शन - समुच्चय का ही अनुसरण करती है । अन्तर मात्र यह है कि जहाँ हरिभ्रद का ग्रन्थ पद्य में है वहाँ सर्वासिद्धान्तप्रवेशक गद्य में है। साथ ही यह ग्रन्थ हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय की अपेक्षा कुछ विस्तृत भी है। इसमें बौद्ध दर्शन पर भी एक अध्याय है 1
ज़ैन परम्परा के दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में दूसरा स्थान जीवदेवसूरि के शिष्य आचार्य जिनदत्तसूरि (विक्रम सं. 1265) के ' विवेकविलास' का आता है । इस ग्रन्थ के अष्टम उल्लास में षड्दर्शनविचार नामक प्रकरण है, जिसमें जैन, मीमांसक, बौद्ध, सांख्य, शैव और नास्तिक - इन छः दर्शनों का संक्षेप में वर्णन किया गया है ।
यह ग्रन्थ भी हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय के समान केवल परिचयात्मक और निष्पक्ष विवरण प्रस्तुत करता है और आकार में मात्र 66 श्लोक परिमाण है । जैन परम्परा में दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में तीसरा क्रम राजशेखर (विक्रम सं. 1405) के षड्दर्शनसमुच्चय का आता है । इस ग्रन्थ में जैन, सांख्य, जैमिनीय, योग, वैशषिक और सौगत (बौद्ध) इन छः दर्शनों का उल्लेख किया गया है और अन्त में
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
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