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कर्म पाश्चात्य आचार दर्शन जैन और जैन बौद्ध
गीता 1. शुद्ध अतिनैतिक कर्म ईर्यापथिक कर्म अव्यक्त कर्म
अकर्म 2. शुभ नैतिक कर्म पुण्य कर्म कुशल कर्म (शुक्ल) कर्म (कुशल कम) 3. अशुभ अनैतिक कर्म पाप कर्म अकुशल कर्म (कृष्ण) विकर्म
__ आध्यात्मिक या नैतिक पूर्णता के लिए हमें क्रमशः अशुभ कर्मों से शुभ कर्मों की ओर और शुभ कर्मों से शुद्ध कर्मों की ओर बढ़ना होगा। आगे हम इसी क्रम से उन पर थोड़ी अधिक गहराई से विवेचन करेंगे। अशुभ या पाप कर्म - जैन आचार्यों ने पाप की यह परिभाषा दी है कि वैयक्तिक संदर्भ में जो आत्मा को बंधन में डाले, जिसके कारण आत्मा का पतन हो, जो आत्मा के आनन्द का शोषण करे और आत्म शक्तियों का क्षय करे, वह पाप है । सामाजिक संदर्भ में जो पर पीड़ा या दूसरों के दुःख का कारण है, वह पाप है (पापाय परपीड़न)। वस्तुतः जिस विचार एवं आचार से अपना और पर का अहित हो और जिस अनिष्ट फल की प्राप्ति हो, वह पाप है। नैतिक जीवन की दृष्टि से वे सभी कर्म जो स्वार्थ, घृणा या अज्ञान के या दूसरे का अहित करने की दृष्टि से किए जाते हैं, पाप कर्म हैं। मात्र इतना ही नहीं सभी प्रकार के दुर्विचार और दुर्भावनाएँ भी पाप कर्म हैं। पाप या अकुशल कर्मों का वर्गीकरण - जैन दार्शनिकों के अनुसार पाप कर्म 18 प्रकार के है : 1. प्राणातिपात-हिंसा, 2. मृषावाद-असत्य भाषण, 3. अदत्तादान-चौर्य कर्म, 4. मैथुन-काम विकार या लैगिंक प्रवृत्ति, 5. परिग्रह-ममत्व, मूर्छा; तृष्णा या संचय वृत्ति, 6. क्रोध-गुस्सा, 7. मान-अहंकार, 8. माया, कपट, छल, षड्यंत्र और कूटनीति, 9. लोभ-संचय या संग्रह की वृत्ति, 10. राग-आसक्ति, 11. द्वेष-घृणा, तिरस्कार, ईर्ष्या। 12. क्लेश-संघर्ष, कलह, लड़ाई, झगड़ा आदि, 13. अभ्याख्यान-दोषारोपण, 14. पिशुनता-चुगली, 15. परपरिवाद-परनिंदा, 16. रति अरति-हर्ष और शोक, 17. माया मृषा-कपट सहित असत्यभाषण, 18. मिथ्यादर्शनशल्य-अयथार्थ श्रद्धा या जीवन दृष्टियाँ। बौद्ध दृष्टिकोण - बौद्ध दर्शन में कायिक, वाचिक और मानसिक आधार पर निम्न 10 प्रकार के पापों या अकुशल कर्मों का वर्णन मिलता है :(अ) कायिक पाप : 1 प्राणातिपात-हिंसा, 2. अदत्तादान-चोरी या स्तेय,
3. कामेसु-मिच्छाचार-कामभोग सम्बन्धी दुराचार।। (ब) वाचिक पाप : 4. मृषावाद-असत्य भाषण, 5. पिसुनावाचा-पिशुन वचन, ____6. परूसावाचा-कठोर वचन, 7. सम्फलाप-व्यर्थ आलाप। (स) मानसिक पाप : 8. अमिज्जा-लोभ, 9. व्यापाद-मानसिक हिंसा या अहित
चिंतन, 10. मिच्छादिट्ठी-मिथ्या दृष्टिकोण। जैन धर्मदर्शन
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