Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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मुक्त पुरुष कूटस्थ नित्य है फिर भी संसार दशा में उसमें कर्तृव्य गुण देखा जाता है, चाहे वह प्रकृति के निमित्त क्यों न हो। संसार दशा में पुरुष में ज्ञान-अज्ञान, कर्तृव्य-अकर्तृव्य, भोक्तृव्य-अभोक्तृत्व के विरोधी गुण रहते हैं सांख्य दर्शन की इस मान्यता का समर्थन महाभारत में लिखा गया है
यो विद्वान् सहसंवासं विवासं चैव पश्यति।
तथैवैकत्व नानात्वे स दुःखात् परिमुच्यते।। अर्थात् जो विद्वान जड़-चेतन के भेदोभेद को तथा एकत्व और नानात्व को देखता है वह दुःख से छूट जाता है। जड़ (शरीर) और चेतन (आत्मा) का यह भेदाभेद तथा एकत्व में अनेकत्व और अनेकत्व में एकत्व की यह दृष्टि अनेकांतवाद की स्वीकृति के अतिरिक्त और क्या हो सकती है। वस्तुतः सांख्य दर्शन में पुरुष और प्रकृति में आत्यान्तिक भेद माने बिना मुक्ति कैवल्य की अवधारणा सिद्ध नहीं होगी किन्तु दूसरी ओर उन दोनों में आत्यान्तिक भेद मानेंगे तो संसार की व्याख्या सम्भव नहीं होगी। संसार की व्याख्या के लिए उनमें आंशिक या सापेक्षिक अभेद और मुक्ति की व्याख्या के लिए उनमें सापेक्षिक भेद मानना भी आवश्यक है। पुनः प्रकृति और पुरुष को स्वतंत्र तत्त्व मानकर भी किसी न किसी रूप में उसमें उन दोनों की पारस्परिक प्रभावकता तो मानी गई है। प्रकृति में जो विकार उत्पन्न होता है वह पुरुष का सान्निध्य पाकर ही होता है। इसी प्रकार चाहे हम बुद्धि (महत्) और अहंकार को प्रकृति का विकार माने किन्तु उनके चैतन्य रूप में प्रतिभाषित होने के लिए उनमें पुरुष का प्रतिबिम्वित होना तो आवश्यक है। चाहे सांख्य दर्शन बन्धन और मुक्ति को प्रकृति के आश्रित माने फिर भी जड़ प्रकृति के तादात्म्य बुद्धि का कर्ता तो किसी ने किसी रूप में पुरुष को स्वीकार करना होगा, क्योंकि जड़ प्रकृति के बन्धन और मुक्ति की अवधारणा तार्किक दृष्टि से सबल सिद्ध नहीं होती है।
वस्तुतः द्वैतवादी दर्शनों, की चाहे वे सांख्य हो या जैन कठिनाई यह है कि उन दो तत्वों की पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रिया या आंशिक तादात्म्य माने बिना संसार और बन्धन की व्याख्या सम्भव नहीं होती है और दोनों को एक दूसरे से निरपेक्ष या स्वतंत्र माने बिना मुक्ति की अवधारणा सिद्ध नहीं होती है। अतः किसी न किसी स्तर पर उनमें अभेद और किसी न किसी स्तर पर उनमें भेद मानना आवश्यक है। यही भेदाभेद की दृष्टि ही अनेकांत की आधार-भूमि है, जिसे किसी न किसी रूप में सभी दर्शनों को स्वीकार करना ही होता है। सांख्य दर्शन चाहे बुद्धि, अहंकार आदि को प्रकृति का विकार माने किन्तु संसारी पुरुष को उससे असम्पृक्त नहीं कहा जा सकता है। योगसूत्र भाष्य में कहा गया है -
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान