Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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सामान्य विशेषात्मनोऽर्थस्य। इसी बात को किच्चित् शब्दभेद के साथ विभूतिपाद में भी कहा गया है- सामान्य विशेष समुदायोऽत्र द्रव्यम् । मात्र इतना ही नहीं, योगदर्शन में द्रव्य की नित्यता अनित्यता को उसी रूप में स्वीकार किया गया है जिस रूप में अनेकांत दर्शन में। महाभाष्य के पशपशाहिक में प्रतिपादित है कि द्रव्यनित्यमाकृतिरनित्या, सुवर्ण कयाचिदाकृत्यायुक्तं पिण्डो भवति पिण्डाकृतिमुपमृद्य रूचकाः क्रियन्ते, रूचकाकृतिमुपमृद्य कटकाः क्रियन्ते .... आकृतिरन्याचान्याभवति द्रव्यं पुनस्तदेव आकृत्युपमृदेन द्रव्यमेवावशिष्यते।
इस प्रकार हम देखते हैं कि सांख्य और योगदर्शन की पृष्ठभूमि में कहीं न कहीं अनेकांत दृष्टि अनुस्यूत है। वैशेषिक दर्शन और अनेकांत
वैशेषिक दर्शन में जैन दर्शन के समान ही प्रारम्भ में तीन पदार्थ की कल्पना की गई, वे हैं द्रव्य, गुण और पर्याय कह सकते हैं। यद्यपि वैशेषिक दर्शन भेदवादीदृष्टि से इन्हें एक दूसरे से स्वतंत्र मानता है, फिर भी उसे इनमें आश्रयआश्रयीभवा तो स्वीकार करना ही पड़ता है। ज्ञातव्य है कि जहां आश्रय-आश्रयी भाव होता है, वहां उनमें कथंचित या सापेक्षिक सम्बन्ध तो मानना ही पड़ता है। उन्हें एक दूसरे से पूर्णतः निरपेक्ष या स्वतंत्र नहीं कहा जा सकता है। चाहे वैशेषिक दर्शन उन्हें एक दूसरे से स्वतंत्र कहे, फिर से असम्बद्ध नहीं है। अनूभूति के स्तर पर द्रव्य से पृथक् गुण और द्रव्य और गुण से पृथक कर्म नहीं होते हैं। यही उनका भेदाभेद है, अनेकांत है।
पुनः वैशेषिक दर्शन में सामान्य और विशेष नामक दो स्वतंत्र पदार्थ माने गये हैं। उनमें भी सामान्य के दो भेद किये- सामान्य और अपर सामान्य। पर सामान्य को ही सत्ता भी कहा गया है, वह शुद्ध अस्तित्व है, सामान्य है किन्तु जो अपर सामान्य है वह सामान्य-विशेष रूप है। द्रव्य, गुण और कर्म अपर सामान्य है और अपर सामान्य होने से सामान्य-विशेष उभय रूप हैं। वैशेषिक सूत्र में कहा भी गया है -
द्रव्यत्वं गुणत्वं कर्मत्वं च सामान्यानि विशेषाश्च द्रव्य, गुण और कर्म को युगपद सामान्य विशेष उभय रूप मानना यही तो अनेकांत है। द्रव्य किस प्रकार सामान्य विशेषात्मक है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है -
सामान्यं विशेषं इति बुद्धयपेक्षम् । सामान्य और विशेष यह ज्ञान बुद्धि या विचार की अपेक्षा से हे। इसे स्पष्ट करते हुए भाष्यकार प्रशस्तपाद कहते हैं -
द्रव्यत्वं पृथ्वीत्वापेक्षया सामान्यं सत्तापेक्षया च विशेष इति। द्रव्यत्व पृथ्वी नामक द्रव्य की अपेक्षा से सामान्य है और सत्ता की अपेक्षा से विशेष है। दूसरे शब्दों
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
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