Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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में एक ही वस्तु अपेक्षाभेद से सामान्य और विशेष दोनों ही कही जा सकती है। अपेक्षाभेद से वस्तु में विरोधी प्रतीत होने वाले पक्षों को स्वीकार करना यही तो अनेकांत है। उपस्कार कर्ता ने तो स्पष्टतः कहा है, सामान्यं विशेषसंज्ञामपि लभते अर्थात् वस्तु केवल सामान्य अथवा केवल विशेष रूप न होकर सामान्य-विशेष रूप है और इसी तथ्य में अनेकांत की प्रस्थापना है।
पुनः वस्तु सत्-असत् रूप है, इस तथ्य को भी कणाद महर्षि ने अन्योन्याभाव के प्रसंग में स्वीकार किया है। वे लिखते है -
सच्चासत् । यच्चान्यदसदतस्तदसत । व्याख्या में उपस्कार कर्ता ने जैन दर्शन के समान ही कहा है -
यत्र सदेव घटादि असदितिव्ययवह्रियते तत्र तादात्म्याभावः प्रतीयते। भवित हि सनश्वो गवात्मना असन् गौरश्वरात्मना, असन् पटो घटात्मना इत्यादि।
तात्पर्य यह है कि वस्तु स्वस्वरूप की अपेक्षा से अस्ति रूप है और पर स्वरूप की अपेक्षा नास्तिरूप है। वस्तु में स्व की सत्ता की स्वीकृति और पर की सत्ता का अभाव मानना यही तो अनेकांत है जो वैशेषिकों को भी मान्य है। अस्तित्व नास्तित्व पूर्वक और नास्तित्व अस्तित्व पूर्वक है। न्यायदर्शन और अनेकांत
न्यायदर्शन में न्यायसूत्रों के भाष्यकार वात्स्यायन ने अनेकांतवाद का आश्रय लिया है। वे लिखते हैं -
एतच्च विरुद्धयोरेकधर्मिस्थयोर्बोधव्यं, यत्र तु धर्मी सामान्यगतो रुिद्धौधौं हेतुतः सम्भवतः तत्र समुच्चयः हेतुतोऽर्थस्य तथाभावोपपत्तेः इत्यादिअर्थात् जब एक ही धर्मी में विरुद्ध अनेक धर्म विद्यमान हो तो विचारपूर्वक ही निर्णय लिया जाता है, किन्तु जहां धर्मी सामान्य में (अनेक) धर्मों की सत्ता प्रामाणिक रूप से सिद्ध हो, वहां पर तो उसे समुच्चय रूप अर्थात् अनेक धर्मों से युक्त ही मानना चाहिए, क्योंकि वहां पर जो वस्तु उस ही रूप में सिद्ध है। तात्पर्य यह है कि यदि दो धर्मों में आत्यान्तिक विरोध नहीं है और वे सामान्य रूप से एक ही वस्तु में अपेक्षाभेद से पाये जाते हैं तो उन्हें स्वीकार करने में न्याय दर्शन को आपत्ति नहीं है।
इसी प्रकार जाति और व्यक्ति में कथंचित् अभेद और कथंचित् भेद मानकर जाति को भी सामान्य विशेषात्मक माना गया है। भाष्यकार वात्स्यायन लिखते हैं - यच्च केषांचिदभेदं कुतश्चिद् भेदं करोति तत्सामान्य विशेषो जातिरिति।
यह सत्य है कि जाति सामान्य रूप भी है, किन्तु जब वह पदार्थों में कथंचित् अभेद और कथंचित् भेद करती है तो वह जाति सामान्य-विशेषात्मक होती है। यहां जाति को, जो सामान्य की वाचक है, सामान्य विशेषात्मक मानकर जैन अनेकान्तदर्शन
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