Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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स पुरुषोबुद्धेः प्रति संवेदी सबुद्धेर्नस्वरूपो नात्यन्तविरुप इति। न तावत्स्वरूपः कस्मात् ज्ञाता-ज्ञातविषयत्वात् अस्तु तर्हि विरुप इति नात्यन्तं विरूपः कस्मात् शुद्धोऽप्यसौ प्रत्ययानुपश्यों यतः प्रत्ययं बौद्धमनुपश्यति । अतः प्रकृति और पुरुष दो स्वतन्त्र तत्व होकर भी उनमें पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रिया घटित होती है। उन दो तत्त्वों के बीच भेदा-भेद यह बंधन और मुक्ति की व्याख्याओं का आधार है। योग दर्शन और अनेकांतवाद
जैन दर्शन में द्रव्य और गुण या पर्याय, दूसरे शब्दों में धर्म और धर्मी में एकांत अभेद को स्वीकार नहीं करके उनमें भेदाभेद स्वीकार करता है और यही उसके अनेकांतवाद का आधार है। यही दृष्टिकोण हमें योगसूत्र भाष्य में भी मिलता है--
न धर्मीत्र्यध्वा धर्मास्तु त्र्यध्वान ते लक्षिता-अलक्षिताश्च तान्तामवस्था प्राप्नुवन्तो ऽन्यत्वेन प्रति निर्दिश्यन्ते अवस्थान्तरतो न द्रव्यान्तरतः। यथैक रेखा शत-स्थाने शतं दशस्थाने दशैकं चैकस्थाने। यथाचैकत्वेपि स्त्री माताचोच्यते दुहिता च स्वसा चेति।
___ इसी तथ्य को उसमें इस प्रकार भी प्रकट किया गया है - "यथा सुवर्ण भाजनस्य भित्वान्यथा क्रियमाणस्य भावान्यथात्वं भवित न सुवर्णान्यथात्वम्।"
इन दोनों सन्दर्भो से यह स्पष्ट है कि जिस प्रकार एक ही स्त्री अपेक्षाभेद से माता, पुत्री अथवा सास कहलाती है उसी प्रकार एक ही द्रव्य अवस्थान्तर को प्राप्त होकर भी वही रहता है। एक स्वर्ण पात्र को तोड़कर जब कोई अन्य वस्तु बनाई. जाती है तो उसकी अवस्था बदलती है किन्तु स्वर्ण वही रहता है अर्थात् नहीं बदलता है, किन्तु अवस्था बदलती है। यही सत्ता का नित्यानित्यत्व या भेदाभेद है जो जैन दर्शन में अनेकांतवाद का आधार है। इस भेदाभेद को आचार्य वाचस्पति मिश्र इसी स्थल की टीका में स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हुए लिखते हैं - अनुभव एव ही धर्मिणो धर्मादिनां भेदाभेदो व्यवस्थापयन्ति।
___ मात्र इतना ही नहीं, वाचस्पति मिश्र तो स्पष्ट रूप से एकान्तवाद का निरसन करके अनेकांतवाद की स्थापना करते हैं। वे लिखते है -
नौकान्तिकेऽभेदे धर्मादीनां धर्मिणो, धर्मोरूपवद् धर्मादित्वं नाप्यैकान्तिके भेदे गवाश्चवद् धर्मादित्वं स चानुभवोऽनेकान्तिकत्वमस्थापयन्नपि धर्मादिषूपजनापाय धर्मकेष्वपि धर्मिणमेकमनुगमयन् धर्माश्च परसतो व्यवर्तयन् प्रत्यात्मनुभूतयत इति। एकान्त का निषेध और अनेकांत की पुष्टि का योगदर्शन में इससे बड़ा कोई और प्रमाण नहीं हो सकता है।
योग दर्शन भी जैन दर्शन के समान ही सत्ता को सामान्य विशेषात्मक मानता है योगसूत्र में कहा गया है - जैन अनेकान्तदर्शन
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