Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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पापों का उल्लेख भी मिलता है। यह अध्याय मोक्ष के स्वरूप का विवेचन भी करता है और उसे शिव, अतुल, अमल, अव्याघात, अपुनर्भव, अपुनरावर्तन तथा शाश्वत स्थान बताता है। मोक्ष का ऐसा ही स्वरूप हमें जैन-आगम-साहित्य में अन्यत्र भी मिलता है। पाँच महाव्रतों और चार कषायों का विवरण तो ऋषिभाषित के अनेक अध्यायों में आया है। महाकाश्यप नामक 9वें अध्ययन में पुण्य, पाप तथा संवर और निर्जरा की चर्चा उपलब्ध होती है। इसी अध्याय में कषाय का भी उल्लेख है। नवें अध्याय में कर्म आदान की मुख्य चर्चा करते हुए मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा योग को बन्धन का कारण कहा गया है जो कि जैन परम्परा के पूर्णतः अनुरूप है। इसमें जैन परम्परा के अनेक पारिभाषिक शब्द यथा उपक्रम, बद्ध, स्पृष्ट, निकाचित, निर्जीर्ण, सिद्धि, शैलेषी अवस्था, पेदशोदय, विपाकोदय आदि पाये जाते हैं। इस अध्याय में प्रतिपादित आत्मा की नित्यानित्यता की अवधारणा सिद्धावस्था का स्वरूप एवं कर्मबन्धन और निर्जरा की प्रक्रिया जैन दर्शन के समान है।
इसी तरह अनेक अध्यायों के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अवधारणा भी मिलती है। बारहवें याज्ञवल्क्य नामक अध्ययन में जैन परम्परा के अनुरूप गोचरी के स्वरूप एवं शुद्धैषणा की चर्चा मिल जाती है। आत्मा अपने शुभाशुभ कर्मों का कर्ता और कृत कर्मों के फल का भोक्ता है, यह बात भी 15वें मधुरायन नामक अध्ययन में की गयी है। सत्रहवें विदुर नामक अध्ययन में सावद्ययोग विरति और समभाव की चर्चा है। उन्नीसवें आरियायण नामक अध्याय में आर्य ज्ञान आर्यदर्शन और आर्यचरित्र के रूप में प्रकारान्तर से सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चरित्र की ही चर्चा है। बाईसवाँ अध्याय धर्म के क्षेत्र में पुरुष की प्रधानता की चर्चा करता है तथा नारी की निन्दा करता है, इसकी सूत्रकृतांग के इत्थिपरिण्णानामक अध्ययन से समानता है। तेईसवें रामपुत्त नामक अध्याय में उत्तराध्ययन (28/35) के समान ही ज्ञान के द्वारा जानने, दर्शन के द्वारा देखने, संयम के द्वारा निग्रह करने की तथा तप के द्वारा अष्टविद्य कर्म के विघुणन की बात कही गयी है। अष्टविद्य कर्म की यह चर्चा केवल जैन परम्परा में ही पायी जाती है। पुनः चौबीसवें अध्याय में भी मोक्षमार्ग के रूप में ज्ञान, दर्शन एवं चरित्र की चर्चा है। इसी अध्याय में देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नारक-इन चतुर्गतियों की भी चर्चा है। पचीसवें अम्बड़ नामक अध्याय में चार कषाय, चार विकथा, पाँच महाव्रत, तीन गुप्ती, पंच इन्द्रिय संयम, छः जीवनिकाय, सात भय, आठ मद, नौ प्रकार का ब्रह्मचर्य तथा दस प्रकार के समाधिस्थान की चर्चा है। इस प्रकार इस अध्याय में जैन परम्परा में मान्य अनेक अवधारणायें एक साथ उपलब्ध हो जाती हैं। इसी अध्याय में आहार करने के छः कारणों की वह चर्चा भी है, जो कि स्थानांग (स्थान 61) आदि में मिलती है। स्मरण
जैन धर्मदर्शन
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