Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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प्रवर्तक धर्म (दार्शनिक प्रदेय) | निवर्तक धर्म (दार्शनिक प्रदेय) 1. जैविक मूल्यों की प्रधानता 1. आध्यात्मिक मूल्यों की प्रधानता 2. विधायक जीवनदृष्टि 2. निषेधक जीवनदृष्टि 3. समष्टिवादी
3. व्यष्टिवादी 4. व्यवहार में कर्म पर बल फिर भी | 4. व्यवहार में नैष्कर्म्यता का समर्थन
दैवीय कृपा के आकांक्षी होने से | फिर तपस्या पर बल देने से दृष्टि भाग्यवाद एवं नियतिवादी का। पुरुषार्थवादी
समर्थन 5. ईश्वरवादी
| 5. अनीश्वरवादी 6. ईश्वरवादी कृपा पर विश्वास । | 6. वैयक्तिक प्रयासों पर विश्वास
कर्मसिद्धान्त का समर्थन 7. साधना के बाह्य साधनों पर बल | 7. आन्तरिक विशुद्धता पर बल 8. जीवन का लक्ष्य स्वर्ग एवं ईश्वर | 8. जीवन का लक्ष्य मोक्ष एवं
के सान्निध्य की प्राप्ति। निर्वाण की प्राप्ति (सांस्कृतिक प्रदेय)
(सांस्कृतिक प्रदेया) 9. वर्ण व्यवस्था और जातिवाद का | 9. जातिवाद का विरोध, वर्णव्यवस्था जन्मना आधार पर समर्थन
का केवल कर्मणा आधार पर
समर्थन 10. गृहस्थ जीवन की प्रधानता 10. सन्यास की प्रधानता 11. सामाजिक जीवन-शैली 11. एकाकी जीवन-शैली 12. राजतन्त्र का समर्थन 12. जनतन्त्र का समर्थन
प्रवर्तक धर्मों में प्रारम्भ में जैविक मूल्यों की प्रधानता रही, वेदों में जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति से सम्बन्धित प्रार्थनाओं के स्वर अधिक मुखरित हुए हैं उदाहरणार्थ-हम सौ वर्ष जीवें, हमारी सन्तान बलिष्ठ होवें, हमारी गायें अधिक दूध देवें, वनस्पतियाँ प्रचुर मात्रा में हों आदि। इसके विपरीत निवर्तक धर्म ने जैविक मूल्यों के प्रति एक निषेधात्मक रुख अपनाया, उन्होंने सांसारिक जीवन की दुःखमयता का राग अलापा। उनकी दृष्टि में शरीर आत्मा का बन्धन है और संसार दुःखों का सागर । उन्होनें संसार और शरीर दोनों से मुक्ति को जीवन लक्ष्य माना। उनकी दृष्टि में दैहिक आवश्यकताओं का निषेध, अनासक्ति, विराग और आत्मसन्तोष ही सर्वोच्च जीवन मूल्य हैं।
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
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