Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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जैनों ने यद्यपि निवृत्तिप्रधान जीवनदृष्टि का अनुसरण तो किया, किन्तु परवर्ती काल में उसमें प्रवृत्तिमार्ग के तत्त्व समाविष्ट होते गए। न केवल साधना के लिए जीवन रक्षण के प्रयत्नों का औचित्य स्वीकार किया गया, अपितु ऐहिक-भौतिक के लिए भी तांत्रिक साधना की जाने लगी। क्या जैन धर्म जीवन का निषेध सिखाता है?
सामान्यतया यह माना जाता है कि तंत्र की जीवनदृष्टि ऐहिक जीवन को सर्वथा वरेण्य मानती है, जबकि जैनों का जीवनदर्शन निषेधमूलक है। इस आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि जैन धर्म दर्शन तंत्र का विरोधी है, किन्तु जैन दर्शन के सम्बन्ध में यह एक भ्रान्त धारणा ही होगी। जैनों ने मानव जीवन को जीने के योग्य एवं सर्वथा वरेण्य माना है। उनके अनुसार मनुष्य जीवन ही तो एक ऐसा जीवन है जिसके माध्यम से व्यक्ति विमुक्ति के पथ पर आरूढ़ हो सकता है। आध्यात्मिक विकास की यात्रा का प्रारम्भ और उसकी पूर्णता मनुष्य जीवन से ही संभव है, अतः जीवन सर्वतोभावेन रक्षणीय है। उसमें 'शरीर' को संसार समुद्र में तैरने की नौका कहा गया है और नौका की रक्षा करना पार जाने के इच्छुक व्यक्ति का अनिवार्य कर्त्तव्य है। इसी प्रकार उसका अहिंसा का सिद्धान्त भी जीवन की रक्षणीयता पर सर्वाधिक बल देता है।
वह न केवल दूसरों के जीवन के रक्षण की बात करता है अपितु वह स्वयं के जीवन के रक्षण की भी बात करता है। उसके अनुसार स्व की हिंसा दूसरों की हिंसा से भी निकृष्ट है। अतः जीवन चाहे अपना हो या दूसरों का वह सर्वतोभावेन रक्षणीय है। यद्यपि इतना अवश्य है कि जैनों की दृष्टि में पाशविक शुद्ध स्वार्थों से परिपूर्ण, मात्र जैविक ऐषणओं की पूर्ति में संलग्न जीवन न तो रक्षणीय है, न वरेण्य; किन्तु यह दृष्टि तो तंत्र की भी है, क्योंकि वह भी पशु अर्थात् पाशविक पक्ष का संहार कर पाश से मुक्त होने की बात करता है। जैनों के अनुसार जीवन उस सीमा तक वरेण्य और रक्षणीय है जिस सीमा तक वह व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास में सहायक होता है और अपने आध्यात्मिक विकास के माध्यम से लोकमंगल का सृजन करता है। प्रशस्त तांत्रिक साधना और जैन साधना दोनों में ही इस सम्बन्ध में सहमति देखी जाती है। वस्तुतः जीवन की एकान्त रूप से वरेण्यता और एकान्त रूप से जीवन का निषेध दोनों ही अवधारणाएँ उचित नहीं है, यही जैनों की जीवनदृष्टि है। वासनात्मक जीवन के निराकरण द्वारा आध्यात्मिक जीवन का विकास-यही तंत्र और जैन दर्शन दोनों की जीवनदृष्टि है और इस अर्थ में वे दोनों विरोधी नहीं है, सहगामी हैं।
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान