Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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के साधन बन जाती हैं। इस प्रकार जैन विचारणा में कर्म और अकर्म अपने बाह्य स्वरूप की अपेक्षा कर्ता के विवेक और मनोवृत्ति पर निर्भर होते हैं। जैन विचारणा में बन्धक तत्व की दृष्टि से क्रियाओं के दो भागों में बांटा गया है। 1. ईर्यापथिक क्रियाएं (अकम) और 2. साम्परायिक क्रियाएं (कर्म या विकम) ईर्यापथिक क्रियाएं निष्काम वीतराग दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति की क्रियाएं हैं जो बन्धनकारक नहीं है जबकि साम्परायिक क्रियाएं आसक्त व्यक्ति की क्रियाएं हैं जो बन्धनकारक हैं। संक्षेप में वे समस्त क्रियाएं जो आश्रव एवं बन्ध का कारण हैं, कर्म है और वे समस्त क्रियाएं जो संवर एवं निर्जरा का हेतु है, अकर्म है। जैन दृष्टि में अकर्म या ईर्यापथिक कर्म का अर्थ है राग-द्वेष एवं मोह रहित होकर मात्र कर्त्तव्य अथवा शरीर निर्वाह के लिए किया जाने वाला कर्म। जबकि कर्म का अर्थ है राग-द्वेष एवं मोह सहित क्रियाएं। जैन दर्शन के अनुसार जो क्रिया व्यापार राग-द्वेष और मोह से युक्त होता है बन्धन में डालता है और इसलिए वह कर्म है और जो क्रिया व्यापार राग-द्वेष
और मोह से रहित होकर कर्तव्य निर्वाह या शरीर निर्वाह के लिए किया जाता है वह बन्धन का कारण नहीं है। अतः अकर्म है। जिन्हें जैन दर्शन में ईर्यापथिक क्रियाएं या अकर्म कहा गया है उन्हें बौद्ध परम्परा अनुचित, अव्यक्त या अकृष्ण-अशुक्ल कर्म कहती है और जिन्हें जैन परम्परा साम्परायिक क्रियाएं या कर्म कहती हैं, उन्हें बौद्ध परम्परा उपचित कर्म या कृष्ण-शुक्ल कर्म कहती है। आइए, जरा इस सम्बन्ध में विस्तार से विचार करें। बौद्ध दर्शन में कर्म अकर्म का विचार - बौद्ध विचारणा में भी कर्म और उनके फल देने की योग्यता के प्रश्न को लेकर महाकर्म विभंग में, विचार किया गया है, जिसका उल्लेख श्रीमती सर्मादास गुप्ता ने अपने प्रबन्ध 'भारत में नैतिक दर्शन का विकास' में किया है। बौद्ध दर्शन का प्रमुख प्रश्न यह है कि कौन से कर्म उपचित होते है। कर्म के उपचित से तात्पर्य संचित होकर फल देने की क्षमता के योग्य होने से है। दूसरे शब्दों में कर्म के बन्धन कारक होने से है। बौद्ध परम्परा का उपचित कर्म जैन परम्परा के विपाकोदयी कर्म से और बौद्ध परम्परा का अनुपचित कर्म जैन परम्परा के प्रदेशोदयी कर्म (ईर्यापथिक कम) से तुलनीय है। महाकर्म विभाग में कर्म की कृत्यता और उपचितता के सम्बन्ध को लेकर कर्म का एक चतुर्विध वर्गीकरण प्रस्तुत किया गया है। 1. वे कर्म जो कृत (सम्पादित) नहीं हैं लेकिन उपचित (फल प्रदाता) हैं -
वासनाओं के तीव्र आवेग से प्रेरित होकर किये गये ऐसे कर्म संकल्प जो कार्य रूप में परिणत न हो पाये है, इस वर्ग में आते है। जैसे किसी व्यक्ति ने क्रोध या द्वेष के वशीभूत होकर किसी को मारने का संकल्प किया हो, लेकिन वह उसे मारने की क्रिया न कर सका हो।
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जैन दर्शन में तत्व और ज्ञान