Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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परिभाषा भारतीय विचारकों के अनुकूल होने के साथ ही तार्किक और स्वाभाविक भी है। इन सब तथ्यों के आधार पर यह सिद्ध होता है कि मनुष्य चिन्तनशील प्राणी है। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि मनुष्य के चिन्तन का विषय क्या है? स्वाभाविक रूप से चिन्तन के तीन रूप ही हो सकते हैं:(1) वह स्वयं क्या है? (2) यह दृश्य जगत् क्या है और इसका सारतत्त्व क्या है? (3) व्यक्ति और जगत् का क्या सम्बन्ध है या होना चाहिए?
पहले दो विषय तत्त्वज्ञान से सम्बन्धित हैं और तीसरा नीतिशास्त्र से। मनुष्य के आचार के नियम इसी आधार पर निश्चित किये जाते हैं। यदि मनुष्य के लिए नैतिक मर्यादाएं ही मान्य न की जाएँ तो हमारा यह मानना कि मनुष्य विवेकशील प्राणी हैं, कोई अर्थ नहीं रखता और मनुष्य तथा पशु में कोई अन्तर भी नहीं रह जाता।
नैतिक नियम मानव जाति के सहस्त्रों वर्षों के चिन्तन और मनन के परिणाम हैं। उनको मानने से इनकार करने का अर्थ होगा कि मनुष्य जाति को उसकी ज्ञानक्षमता से विलग कर पशु जाति की श्रेणी में मिला. देना।
स्वाभाविक नियम तो पशु जाति में भी होते हैं। उनके आचार और व्यवहार उन्हीं नियमों से शासित होते हैं। वे आहार की मात्रा, रक्षा के उपाय आदि का निश्चय इन स्वाभाविक नियमों के सहारे करते हैं, लेकिन मनुष्य की विशिष्टता इसी में है कि वह स्वचिन्तन के आधार पर अपने हिताहित का ध्यान रख ऐसी मर्यादाएँ निश्चित करे जिससे वह अपने परम साध्य को प्राप्त कर सके।
___ काण्ट ने कहा है कि “अन्य पदार्थ नियम के अधीन चलते हैं। मनुष्य नियम के प्रत्यय के अधीन भी चल सकता है। अन्य शब्दों में, उसके लिए आदर्श बनाना और उन पर चलना संभव है।"4
मनुष्य अपने को पूर्ण रूप से प्रकृति पर आश्रित नहीं रखता है। वह प्रकृति के आदेशों का पूर्ण रूप से पालन नहीं करता। आज तक का मानव-जाति का इतिहास यह बताता है कि मनुष्य ने प्रकृति से शासित होने की अपेक्षा उस पर शासन करने का प्रयत्न किया है। फिर आचार के क्षेत्र में यह दावा कैसे स्वीकार किया जा सकता है कि मनुष्य को अपनी वृत्तियों की पूर्ति हेतु मानवों द्वारा निर्मित नैतिक मर्यादाओं द्वारा शासित न कर स्वतंत्र परिचारण करने देना चाहिए। मनुष्य जीवन में कृत्रिमता को अधिक स्थान दिया है और इस हेतु उसके लिए अधिक निर्मित नैतिक मर्यादाओं की आवश्यकता है।
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जैन दर्शन में तत्व और ज्ञान