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इस काल में जैन योग पर अन्य योग पद्धतियों का प्रभाव
प्रारम्भिक काल में किसी एक योग-पद्धति पर अन्य योग पद्धति का प्रभाव दर्शाना बहुत कठिन है, क्योंकि तत्कालीन धार्मिक ग्रन्थ या साहित्य में ऐसे कोई भी निश्चित प्रमाण हमें नहीं मिलते हैं, जिनसे एक का प्रभाव दूसरे पर सिद्ध हो सके । उस (प्रारम्भिक ) काल में भारत की 'श्रामणिक' परम्परा (sramanic trend) विभिन्न प्रकार के निश्चयात्मक सम्प्रदायों भूमिकाओं में विभाजित नहीं हुई थी, किन्तु इस द्वितीय काल में जिसे आगम युग (canonical period) माना जाता है, दार्शनिक विचारों के विभिन्न वर्गों ने अपने विशिष्ट नामों के साथ एक निश्चित रूप ग्रहण कर लिया था, जैसे जैन, बौद्ध, आजीवक, सांख्य योग आदि । इस काल में जैनयोग और बौद्धयोग तथा पतंजलि के योग में अनेक प्रकार की समानताएँ मिलती हैं। पं. सुखलालजी ने अपनी 'तत्वार्थसूत्र' की भूमिका प्र. 55 में इन समानताओं का विस्तार से विवेचन किया है, लेकिन इन समानताओं के आधार पर एक का प्रभाव दूसरे पर सिद्ध करना बहुत कठिन है । यद्यपि सामान्यतः यह माना जा सकता है कि इन सभी पद्धतियों का एक ही मूल स्त्रोत रहा है, जिससे ये विकसित हुई हैं और वह एक स्रोत था भारतीय 'श्रमण परम्परा । परवर्ती काल में विशेष रूप से आगम युग में हमें पतंजलि के योगसूत्र और उमास्वाति के तत्वार्थसूत्र में कुछ समानताएँ अवश्य मिलती हैं, लेकिन उनके नामकरण और व्याख्याएँ अलग-अलग प्रकार से हुई है - इससे एक का प्रभाव दूसरे पर सिद्ध नहीं हो सकता । यद्यपि पं. सुखलालतजी ने अपने तत्वार्थसूत्र की भूमिका प्र. 55 में तत्वार्थसूत्र और योगदर्शन में समान मान्यता के इक्कीस विचार - बिन्दु दिये हैं, ये एक जैसे लक्षण केवल समानता दर्शाते हैं, लेकिन कुछ को छोड़ उनके नाम और आशय सर्वथा भिन्न हैं और इस भिन्नता के कारण हम यह नहीं कह सकते हैं कि एक पद्धति ने इनको दूसरी पद्धति से लिया है, इससे केवल उनके एक ही स्रोत का पता चलता है कि इस आगम काल (canonical age) में जैनियों की उनकी अपनी एक विशिष्ट ध्यान पद्धति रही थी । यह भी पूरी तरह मान्य था कि उसके द्वारा साधना के अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त ( ultimate end of emancipation) किया जा सकता था । जैन धर्म के ग्रन्थों में जिनभद्र के ध्यानशतक में ध्यान चार प्रकार का माना गया- आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान । इन चार प्रकार के ध्यानों में प्रथम दो-आर्तध्यान और रूद्रध्यान बन्धन का कारण होने से त्याज्य माने गये थे और अंतिम दो - धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान मोक्ष ( emancipation) का करण होने से ग्राह्य माने गये थे ।
जैन धर्मदर्शन
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