Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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गुणस्थान की अवधारणा का क्रमिक विकास (2) 3. समवायांग षट्खण्डागम (5वीं शती) | 4. श्वेताम्बर-दिगम्बर तत्त्वार्थ की टीकाएं
एवं भगवती आराधना, मूलाचार, समयसार,
नियमसार आदि (6वीं शती या उसके पश्चात्) गुणस्थान शब्द का अभाव, किन्तु | गुणस्थान शब्द की स्पष्ट उपस्थिति जीवठाण या जीवसमास के नाम से 14 अवस्थाओं का चित्रण, 14 अवस्थाओं का उल्लेख है। सास्वादन सम्यक् मिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि) और अयोगी केवली आदि का उल्लेख है। अलग-अलग श्रेणी विचार
अलग-अलग श्रेणी विचार उपस्थित
उपस्थित पतन आदि का मूल पाठ में चित्रण पतन आदि का व्याख्या में चित्रण है नहीं है मिच्छादिट्ठी (मिथ्यादृष्टि) मिथ्यादृष्टि सास्वादन सम्यक्दृष्टि
| सास्वादन (सासायण-सम्मादिट्ठी) सम्मा-मिच्छादिट्ठी
सम्यक्-मिथ्यादृष्टि (सम्यक्-मिथ्यादृष्टि)
(मिश्रदृष्टि) अविरय सम्मादिट्ठी
सम्यक्दृष्टि विरयारिए (विरत-अविरत) पमत्तसंजए
प्रमत्तसंयत अपत्तसंजए
अप्रमत्तसंयत निअट्टिबायरे
अपूर्वकरण अनिअट्टिबायरे
अनिवृत्तिकरण सुहुम संपराए
सूमसम्पराय उवसंत मोहे
उपशान्त मोह
खीणमोहे सजोगी केवली
क्षीणमोह |सयोगीकेवली
जैन धर्मदर्शन
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