Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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__ इस तुलनात्मक विवरण से हम पाते है कि तत्त्वार्थसूत्र के समान ही कसायपाहुडसुत्त में न तो गुणस्थान शब्द ही है और न गुणस्थान सम्बन्धी 14 अवस्थाओं का सुव्यवस्थित विवरण ही है, किन्तु दोनों में गुणस्थान की अवधारणा से सम्बन्धित कुछ पारिभाषिक शब्द पाये जते हैं। कसायपाहुड में गुण स्थान से सम्बन्धित पारिभाषिक शब्द हैं - मिथ्यादृष्टि, सम्यक् मिथ्यादृष्टि/मिश्र, अविरत/ सम्यकदृष्टि, देशविरत विरताविरत, संयमासंयम, विरत/संयत, उपशांतकषाय, क्षीणमोह-तुलना की दृष्टि से तत्त्वार्थसूत्र में सम्यक् मिथ्यादृष्टि की अवधारणा अनुपस्थित है, जबकि कसायपाहुडसुत्त में इस पर विस्तृत चर्चा उपलब्ध है। किन्तु तत्त्वार्थसूत्र की 'अनन्तवियोजक' की अवधारणा कसायपाहुड में उपलब्ध नहीं है - उसके स्थान पर उसमें दर्शनमोह उपशमक की अवधारणा पायी जाती है। तत्त्वार्थसूत्र की उपशमक, उपशांत, क्षपक और क्षीणमोह की अवधारणायें स्पष्ट रूप से कसायपाहुडसुत्त में चारित्रमोह उपशमक, उपशांत कषाय और चरित्रमोह क्षपक तथा क्षीणमोह के रूप में यथावत् पायी जाती है। यहां 'चरित्रमोह' शब्द का स्पष्ट प्रयोग इन्हें तत्त्वार्थ की अपेक्षा अधिक स्पष्ट बना देता है। पुनः कसायपाहुडसुत्त मूल में भी तत्त्वार्थसूत्र के समान ही प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरणये चारों नाम अनुपस्थित हैं, किन्तु तत्त्वार्थसूत्र की अपेक्षा इसमें सम्यक् मिथ्यादृष्टि (मिश्र मिसग) और सूक्ष्म-सम्पराय (सुहुमराग/सुहुमसंपराय) ये दो विशेष रूप से उपलबध होते हैं। पुनः उपशान्तमोह और क्षीणमोह के बीच दोनों ने क्षपक (खवग) की उपस्थिति मानी है, किन्तु गुणस्थान-सिद्धान्त में ऐसी कोई अवस्था नहीं है। इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि कसायपाहुड और तत्त्वार्थसूत्र में कर्मविशुद्धि की अवस्थाओं के प्रश्न पर बहुत अधिक समानता है-मात्र मिश्र और सूक्षम-सम्पराय की उपस्थिति के आधार पर उसे तत्त्वार्थ की अपेक्षा किञ्चित् विकसित माना जा सकता है। दोनों की शब्दावली, क्रम और नामों की एकरूपता से यही प्रतिफलित होता है कि दोनों एक ही काल की रचनायें हैं।
___मुझे लगता है कि कषयपाहुड, तत्त्वार्थसूत्र एवं उसके भाष्य के काल में आध्यात्मिक-विशुद्धि या कर्म-विशुद्धि का जो क्रम निर्धारित हो चुका था, वही आगे चलकर गुणस्थान-सिद्धान्त के रूप में अस्तित्व में आया। यदि कसायपाहुड और तत्त्वार्थ चौथी शती या उसके पूर्व की रचनायें हैं तो हमे यह मानना होगा कि गुणस्थान की, सुव्यवस्थित अवधारणा चौथी और पांचवीं शती के बीच ही कभी निर्मित हुई है, क्योंकि लगभग छठी शती से सभी जैन विचारक गुणस्थान-सिद्धांत की चर्चा करते प्रतीत होते हैं, इसका एक फलितार्थ यह भी है कि जो कृतियां गुणस्थान की चर्चा करती है, वे सभी लगभग पांचवीं शती के पश्चात् की हैं। यह
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान