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सार निम्न कथन में समाया हुआ है कि 'परोपकार पुण्य है और पर-पीड़न पाप है'। जैन विचारकों ने पुण्य बन्ध के दान-सेवा आदि जिन कारणों का उल्लेख किया है उनका प्रमुख सम्बन्ध सामाजिक कल्याण या लोक मंगल से है। इसी प्रकार पाप के रूप में जिन तथ्यों का उल्लेख किया गया है वे सभी लोक अमंगलकारी तत्व हैं । इस प्रकार हम कह सकते हैं जहां तक शुभ-अशुभ या पुण्य-पाप के वर्गीकरण का प्रशन है हमें सामाजिक सन्दर्भ में ही उसे देखना होगा। यद्यपि बन्धन की दृष्टि से उस पर विचार करते समय कर्ता के आशय को भुलाया नहीं जा सकता है। सामाजिक जीवन में आचरण के शुभत्व का आधार - यद्यपि यह सत्य है कि कर्म के शुभत्व का निर्णय अन्य प्राणियों या समाज के प्रति किए गए व्यवहार अथवा दृष्टिकोण के सन्दर्भ में होता है, लेकिन अन्य प्राणियों के प्रति हमारा कौनसा व्यवहार या दृष्टिकोण शुभ होगा और कौनसा व्यवहार या दृष्टिकोण अशुभ होगा। इसका निर्णय किस आधार पर किया जाए? भारतीय चिन्तन ने इस सन्दर्भ में जो कसौटी प्रदान की है, वह यह है कि जिस प्रकार के व्यवहार को हम अपने लिए प्रतिकूल समझते हैं, वैसा आचरण दूसरे के प्रति नहीं करना और जैसा व्यवहार हमें अनुकूल है, वैसा व्यवहार दूसरे के प्रति करना; यही शुभाचरण है। इसके विपरीत जो व्यवहार हमें प्रतिकूल है, वैसा व्यवहार दूसरों के प्रति करना और जो व्यवहार हमें अनुकूल है वैसा व्यवहार दूसरों के प्रति नहीं करना अशुभाचरण है। भारतीय ऋषियों मात्र का यही सन्देश है कि 'आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां मा समाचरेत्' अर्थात् जिस आचरण को तुम अपने लिए प्रतिकूल समझते हो वैसा आचरण दूसरों के प्रति मत करो। संक्षेप में सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि ही व्यवहार के शुभत्व का प्रमाण है। जैन दृष्टिकोण - जैन दर्शन के अनुसार जिसकी संसार के सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि है वही नैतिक कर्मों का स्रष्टा है। दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है समस्त प्राणियों को जो अपने समान समझता है और जिसका सभी के प्रति समभाव है वह पाप कर्म का बन्ध नहीं करता है। सूत्रकृतांग में धर्माधर्म (शुभाशुभत्व) के निर्णय में अपने समान दूसरे को समझ के दृष्टिकोण स्वीकार किया गया है। सभी को जीवित रहने की इच्छा है, कोई भी मरना नहीं चाहता, सभी को प्राण प्रिय हैं, सुख शान्तिप्रद है और दुख प्रतिकूल है। इसलिए वही आचरण श्रेष्ठ है जिसके द्वारा किसी भी प्राण का हनन नहीं हो। बौद्ध धर्म का दृष्टिकोण : बौद्ध विचारणा में भी सर्वत्र आत्मवत् दृष्टि को ही कर्म के शुभत्व का आधार माना गया है। सुत्तनिपात में बुद्ध कहते हैं-जैसा मैं हूँ वैसे ही ये दूसरे प्राणी भी हैं और जैसे ये दूसरे प्राणी हैं वैसा ही मैं हूँ इस प्रकार सभी को जैन धर्मदर्शन
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