________________
खाता हो चाहे न जानते हुए भी खाता हो तो भी उसको पाप लगता ही है, हम जानकर नहीं खाते इसलिए हम को दोष (पाप) नहीं लगता, ऐसा कहना एक दम असत्य नहीं तो क्या है" । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन दृष्टि में मनोवृत्ति के साथ ही कर्मों का बाह्य स्वरूप भी शुभाशुभता की दृष्टि से महत्वपूर्ण है । वास्तव
I
सामाजिक दृष्टि या लोक व्यवहार में तो यही प्रमुख निर्णायक होता है । सामाजिक न्याय में तो कर्म का बाह्य स्वरूप ही उसकी शुभाशुभता का निश्चय करता है क्योंकि आन्तरिक वृत्ति को व्यक्ति स्वयं जान सकता है, दूसरा नहीं । जैन दृष्टि एकांगी नहीं है, वह समन्वययवादी और सापेक्षवादी है, वह व्यक्ति - सापेक्ष होकर मानती है और समाज सापेक्ष होकर कर्मों के बाह्य स्वरूप पर उनकी शुभाशुभता का निश्चय करती है, उसमें द्रव्य (बाह्य) और भाव (आंतरिक) दोनों का मूल्य है । उसमें योग (बाह्यक्रिया) और भाव (मनोवृत्ति) दोनों ही बन्धन के कारण माने गये हैं, यद्यपि उसमें मनोवृत्ति ही प्रबल कारण है । वह वृत्ति और क्रिया में विभेद नहीं मानती है । उसकी समन्वयवादी दृष्टि में मनोवृत्ति शुभ हो और क्रिया अशुभ हो, यह सम्भव नहीं है। मन में शुभ भाव होते हुए पापाचरण सम्भव नहीं है वह एक समालोचक दृष्टि से कहती है मन में सत्य को समझते हुए भी बाहर से दूसरी बातें (अशुभाचरण) करना क्या संयमी पुरूषों का लक्षण है? उसकी दृष्टि में सिद्धान्त और व्यवहार में अन्तर आत्म प्रवंचना और लोक छलना है । मानसिक हेतु पर ही जोर देने वाली धारणा का निरसन करते हुए सूत्रकृतांग में कहा गया है - कर्म बन्धन का सत्य ज्ञान नहीं बताने वाले इस वाद को मानने वाले कितने ही लोग संसार में फंसते रहते हैं कि पाप लगने के तीन स्थान हैं - स्वयं करने से, दूसरों से कराने से, दूसरों के कार्य का अनुमोदन करने से, परन्तु यदि हृदय पाप मुक्त हो तो इन तीनों के करने पर भी निर्वाण अवश्य मिले। यह वाद अज्ञान है, मन से पाप को पाप समझते हुए, जो दोष करता है, उसे निर्दोष नहीं माना जा सकता, क्योंकि वह संयम (वासना निग्रह) में शिथिल है, परन्तु भोगासक्त लोग उक्त बात मानकर पाप में पड़े रहते हैं 120
-
पाश्चात्य आचार दर्शन में भी सुखवादी विचारक कर्म की फल निष्पत्ति के आधार पर उनकी शुभाशुभता का निश्चय करते हैं, जबकि माटिन्यू कर्म प्रेरक पर उनकी शुभाशुभता का निश्चय करता है । जैन विचारणा के अनुसार इन दोनों पाश्चात्य विचारणा के अनुसार इन दोनों पाश्चात्य विचारणाओं में अपूर्ण सत्य रहा हुआ है, एक का आधार लोकदृष्टि या समाज दृष्टि है और दूसरी का आधार परमार्थ दृष्टि या शुद्ध दृष्टि है। एक व्यावहारिक सत्य है और दूसरा पारमार्थिक सत्य । नैतिकता व्यवहार से परमार्थ की ओर प्रयाण है, अतः उसमें दोनों का ही मूल्य है । जैन धर्मदर्शन
403