Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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न्याय सूत्र के भाष्य में वात्सायन तर्क के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखते है कि जिस वस्तु का यथार्थ स्वरूप ज्ञान नहीं है उस विषय को यथार्थतः जानने के लिए स्वाभाविक रूप से जो इच्छा उत्पन्न होती है उसे जिज्ञासा कहा जाता है, जिज्ञासा के पश्चात् यह विचार उठता है कि इसका कारण यह है या वह? इस प्रकार यहाँ परस्पर भिन्न दो कोटियाँ उपस्थित हो जाती हैं, इन दो कोटियों में कौन-सी ठीक है यह संशय या विमर्श है ? दोनो कोटियों में से यथार्थ कोटि को जानने के लिए एवं उक्त संशय से मुक्ति पाने के लिए उन संदिग्ध पक्षों में जिस ओर भी कारण की उपपत्ति दृष्टिगोचर होती है उसी सम्भावना को तर्क कहा जाता है अतः तार्किक ज्ञान निर्णयात्मक यह ऐसा ही है 'इस प्रकार का न होकर' 'इसे ऐसा होना चाहिए या यह ऐसा हो सकता है' इस प्रकार का होता है। अतः तर्क एक सम्भावना मूलक ज्ञान है। उदयन का कथन है कि ‘एव' शब्दार्थ अर्थात् 'यह ऐसा ही है' को विषय करती हुई, किन्तु 'एव' शब्द से विहिन कारण की उत्पत्ति द्वारा एक पक्ष का बोधन करती हुई संशय तथा निर्णय के मध्य में होने वाली सम्भावना मूलक प्रतीति तर्क कहलाती है। न्याय दर्शन में तर्क संशय और निर्णय के बीच दोलन की अवस्था है। यद्यपि वह निर्णयाभिमुख अवश्य होती है। संशय में प्रतीति उभय पक्ष अवगाहिनी होती है जैसे 'यह स्तम्भ है या पुरुष' । जबकि निर्णय में वह निश्चित रूप से एक ही पक्ष को ग्रहण करती है। जैसे यह पुरुष ही है। तर्क में वह निर्णयोन्मुख तो होती है किन्तु निश्चयात्मक नहीं जैसे 'यह पुरुष होगा या यह पुरुष हो सकता है'। इस प्रकार हम देखते हैं कि तर्क शब्द को न्याय दर्शन जिस अर्थ में ग्रहण करता है वह उसके जैन दर्शन में गृहीत अर्थ से भिन्न है। वस्तुतः न्याय दर्शन के तर्क का स्वरूप जैन दर्शन के 'ईहा' शब्द के समान है। जैन दार्शनिकों ने ईहा शब्द की जो व्याख्या प्रस्तुत की है वह भी ठीक ऐसी ही है। प्रमाण नयनत्वालोक में ईहा की परिभाषा निम्न प्रकार दी गई है -
___ 'अवग्रहीतार्थ विशेषाकांक्षणमीहा' (2/8) अर्थात् अवग्रह में जिस विषय का ज्ञान होता है उसका ही विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करना ईहा है। मान लीजिये कि मुझे कोई शब्द सुनाई दिया है। वह अवग्रह है, किन्तु शब्द सुनने पर हम यह सोचते हैं कि वह किसका शब्द है, पुरुष का या स्त्री का? यह संशय है - इस संशय से हम उस स्वर की विभिन्न स्वरों से तुलना करते हैं और यह पाते हैं कि यह स्वर पुरुष का नहीं हो सकता, क्योंकि इसमें माधुर्य है, अतः इसे स्त्री का स्वर होना चाहिए। संशय में दोनों पलड़े बराबर रहते हैं, किन्तु ईहा में अन्य साधक प्रमाणों के कारण ज्ञान का झुकाव उस ओर हो जाता है, जिसका निश्चय हम आवाय (निर्णय) में करते हैं, अतः यदि हम आवाय को निर्णय कहें तो ईहा निर्णय की पूर्वावस्था होगी। चूंकि
जैन ज्ञानदर्शन
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