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यद्यपि उपरोक्त आधार पर हम प्रवर्तक धर्म अर्थात् वैदिक परम्परा और निवर्तक धर्म अर्थात् श्रमण परम्परा की मूलभूत विशेषताओं और उनके सांस्कृतिक एवं दार्शनिक प्रदेय को समझ सकते, किन्तु यह मानना एक भ्रान्ति पूर्ण ही होगा कि आज वैदिक धारा और श्रमण धारा ने अपने इस मूल स्वरूप को बनाये रखा है। एक ही देश और परिवेश में रहकर दोनों ही धाराओं के लिए यह असम्भव था कि वे एक दूसरे के प्रभाव से अछूती रहे अतः जहाँ वैदिक धारा में श्रमण धारा (निवर्तक धर्म परम्परा) के तत्वों का प्रवेश हुआ है, वहीं श्रमण धारा में वैदिक धारा (प्रवर्तक धर्म परम्परा) के तत्त्वों का प्रवेश हुआ है। अतः आज के युग में कोई धर्म परम्परा न तो एकान्त निवृत्ति मार्ग की पोषक है और न एकान्त प्रवृत्ति मार्ग की पोषक है। वस्तुतः निवृति और प्रवृति के सम्बन्ध में एकान्तिक दृष्टिकोण न तो व्यवहारिक है और न मनोवैज्ञानिक। मनुष्य जब तक मनुष्य है, मानवीय आत्मा तब तक शरीर के साथ योजित होकर सामाजिक जीवन जीती है, तब तक एकान्त निवृत्ति की बात करना एक मृगमरीचिका में जीना है। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम वास्तविकता को समझें और प्रवृत्ति तथा निवृत्ति के तत्त्वों में समुचित समन्वय से एक ऐसी जीवन शैली खोजें जो व्यक्ति और समाज दोनों के लिए कल्याणकारी हो और मानव को तृष्णाजनित मानसिक एवं सामाजिक संत्रास से मुक्ति दिला सके।
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान