Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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गया, अपितु उसके हेतु (कारण) को भी कर्म कहा गया है । आचार्य देवेन्द्रसूरि लिखते हैं - जीव की क्रिया का हेतु ही कर्म है " । किन्तु हम मात्र हेतु को भी कर्म नहीं कह सकते हैं। हेतु, उससे निष्पन्न क्रिया और उस क्रिया का परिणाम, सभी मिलकर जैन दर्शन में कर्म की परिभाषा को स्पष्ट करते हैं। पं. सुखलाल जी संघवी लिखते हैं कि मिथ्यात्व, कषाय आदि कारणों से जीव द्वारा जो किया जाता है कर्म कहलाता है । मेरी दृष्टि से इसके साथ ही साथ कर्म में उस क्रिया के विपाक को भी सम्मिलित करना होगा। इस प्रकार कर्म के हेतु, क्रिया और क्रिया - विपाक, सभी मिलकर कर्म कहलाते हैं । जैन दर्शनिकों ने कर्म के दो पक्ष माने हैं 1. राग-द्वेष एवं कषाय – ये सभी मनोभाव, भाव कर्म कहे जाते हैं । 2. कर्म - पुद्गल द्रव्यकर्म कहे जाते हैं । ये भावकर्म के परिणाम होते हैं, साथ ही मनोजन्यकर्म की उत्पत्ति का निमित्त कारण भी होते हैं । यह भी स्मरण रखना होगा कि ये कर्म हेतु (भावकर्म) और कर्मपरिणाम (द्रव्यकर्म) भी परस्पर कार्य-कारण भाव रखते हैं ।
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सभी आस्तिक दर्शनों ने एक ऐसी सत्ता को स्वीकार किया है, जो आत्मा या चेतना की शुद्धता को प्रभावित करती है । उसे वेदान्त में माया, सांख्य में प्रकृति, न्यायदर्शन में अदृष्ट एवं मीमांसा में अपूर्व कहा गया है। बौद्धदर्शन में उसे ही अविद्या ओर संस्कार (वासना) के नाम से जाना जाता है। योगदर्शन इसी आत्मा की विशुद्धता को प्रभावित करने वाली शक्ति को कर्म कहता है । जैन दर्शन में कर्म के निमित्त कारणों के रूप में कर्म पुद्गल को भी स्वीकार किया गया है जबकि इसके उपादान के रूप में आत्मा को ही माना गया हैं । आत्मा के बन्धन में कर्म पुद्गल निमित्त कारण है और स्वयं आत्मा उपादान कारण होता है ।
कर्म का भौतिक स्वरूप
जैनदर्शन में कर्म चेतना से उत्पन्न क्रिया मात्र नहीं है, अपितु यह स्वतन्त्र तत्त्व भी है। आत्मा के बन्धन का कारण क्या है? जब यह प्रशन जैन दार्शनिकों के समक्ष आया तो उन्होंने बताया कि आत्मा के बन्धन का कारण केवल आत्मा नहीं हो सकती है । वस्तुतः कषाय ( राग-द्वेष ) अथवा मोह ( मिथ्यात्व) आदि जो बन्धक मनोवृत्तियाँ हैं वे भी स्वतः उत्पन्न नहीं हो सकतीं, जब तक कि वे पूर्वबद्ध कर्मवर्गणाओं के विपाक (संस्कार) के रूप में चेतना के समक्ष उपस्थित नहीं होती है। जिस प्रकार मनोवैज्ञानिक दृष्टि से शरीर - रसायनों के परिवर्तन से संवेग (मनोभाव) उत्पन्न होते हैं और उन संवेगों के कारण ही शरीर - रसायनों में परिवर्तन होता है। यही स्थिति आत्मा की भी है। पूर्व कर्मों के कारण आत्मा में राग-द्वेष आदि मनोभाव उत्पन्न (उदित) होते हैं और इन उदय में आये मनोभावों के क्रियारूप परिणित होने पर आत्मा नवीन कर्मों का संचय करता है । बन्धन की दृष्टि से
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
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